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प्यासी सेना को युद्ध-स्थल में ही पानी पिलाकर सकुशल अपने शिविर में लौट जाने की अनुमति दी थी, पुराण-कालीन नरेशों के धर्म-युद्ध की याद दिलाती है।
युद्ध-भूमि के बीच रक्त के प्यासे शत्रुओं की तृषा को शीतल जल से शान्त कर उन्हें विना बाधा के अपने शिविर में लौट जाने का मौका देने का वर्णन शायद ही किसी अन्य राज्य के इतिहास में मिल सकता है । यह राठोड़-वीरों की ही महती उदारता का उदाहरण है, और इसके लिये 'सहरुल मुताख़रीन' के लेखक सैयद गुलामहुसेन ने राजपूत-वीरों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है । अपने ऐसे वीर
और उदार पूर्वजों का, तथा उनके वर्तमान मुख्य राज्य-मारवाड़ का इतिहास लिखवाकर प्रकाशित करने के लिये ही जोधपुर-दरबार ने, वि० सं० १९४४ (ई० स० १८८८) में, 'इतिहास-कार्यालय' की स्थापना की थी और इसके कार्य संचालन के लिये मुंशी देवीप्रसादजी आदि कुछ इतिहास-प्रेमी विद्वानों की एक 'कमेटी' बना दी थी। इसके बाद वि० सं० १९५२ से १९६८ (ई. स. १८९५ से २१११) तक इस कार्यालय का कार्य पाल-ठाकुर रणजीतसिंहजी के और फिर वि० सं० १९७६ (ई० स० १९१९) तक ठाकुर गुमानसिंहजी खीची के अधिकार में रहा। इसके बाद यह महकमा रीयां-ठाकुर विजयसिंहजी को सौंपा गया । परन्तु वि० सं० १९८३ ( ई० स० १९२६) के करीब उनके इस कार्य से अवसर ग्रहण करलेने पर इसी वर्ष के आश्विन (अक्टोबर ) में जिस समय पार्कियॉलॉजीकल डिपार्टमेन्ट (पुरातत्वविभाग) की स्थापना की गई, उस समय उक्त 'इतिहास-कार्यालय' भी उसी में मिलाया जाकर लेखक के अधिकार में दे दिया गया।
यद्यपि उस समय तक राजकीय 'इतिहास-कार्यालय' को स्थापित हुए करीब ३९ वर्ष हो चुके थे और राज्य का लाखों रुपया उस पर खर्च हो चुका था, तथापि वास्तविक कार्य बहुत ही कम हुआ था। उस समय के रिवैन्यू-मिनिस्टर' के राजकीय काउंसिल में पेश किए विवरण से ज्ञात होता है कि उस समय तक केवल ६ राजामों का इतिहास लि वा गया था और यह भी प्राचीन ढंग से लिवा होने के कारण राजकीय काउंसिल ने अस्वीकार कर दिया था। इसके अलावा उस समय तक मारवाड़ में राठोड़-राज्य के संस्थापक राव सीहाजी से लेकर राव चूंडाजी तक के नरेशों के समय का निर्णय भी न हो सका था।
ऐतिहासिक सामग्री के संग्रह का यह हाल था कि जो कुछ काम की सामग्री इकट्ठी की जाती थी वह इस महकमे के अहलकारों के निजी संग्रह की शोभा बंदाती
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