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छन आचार्यवर्य का अनुसरण करना चाहिये ।" यह सोच आपने अपने विहार-क्षेत्र को आगे बढ़ाने का निश्चय कर अपने ५०० शिष्यों को साथ में लेकर विहार कर दिया।
उस समय मरुधर देश में नूतन बसा हुआ उपकेशपुर नगर जैसे व्यापार का प्रधान केन्द्र गिना जाता था वैसे ही वह ! वाममार्गियों का भी एक बड़ा भारी धाम समझा जाता था। अतः आचार्य रत्नप्रभसूरि भी क्रमशः विहार करते हुये उपकेशपुर नगर की ओर पधार गये । पर वहाँ आपको कौन पूछता ? स्वागत तो दूर रहा वहाँ तो आहार, पानी और ठहरने के लिए स्थान आदि का भी अभाव था। पर जिन्होंने जन-कल्याणार्थ अपना सर्वस्व तक अर्पण करने का निश्चय कर लिया है, उनके लिए दो चार नहीं पर सैकड़ों आपत्तियें भी सामने आ तो क्या परवाह है ? आचार्य श्री ने अपने शिष्यों के साथ जंगल और पहाड़ों में एकान्त ध्यान लगा दिया और इस प्रकार कई मास तक भूखे प्यासे रह कर तपोवृद्धि की । आखिर शुद्ध तपश्चर्या, उत्कृष्ठ त्याग, और नि:स्पृहता का जनता पर इस प्रकार का प्रचण्ड प्रभाव पड़ा कि मानो कोई जादू का ही असर हुआ हो और इधर ऐसे अनेकों अन्यान्य निमित्त कारण भी मिल गए, जैसे कि वहां की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा की आग्रह पूर्वक विनती और सूरिजी के कार्य में सहायता, तथा एक ओर तो सूरिजी के चरणांगुष्ठ प्रक्षालन जल के छिड़कने से वहां के राजा का जामाता जो सर्प विष से मृतप्राय हो गयाथा, सहसा निर्विष हो उठ खड़ा हुआ और दूसरी ओर राजा का इस प्रतिकार के लिए अपने समृद्ध राज्य को सूरिजी के चरणों में समर्पित करना और सूरिजी का इस
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