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तृतीय अध्याय ।
जे नारी निज नाथ साथ रहिने आनन्द लेवा चहे । ते नारी पति नी रुड़ी रति बड़े सौभाग्यवन्ती रहे | सांचो स्नेह स्वनाथ नो समजवो बीजो जुठो जाणजो । सेवा नीज पती तणी भलि करी मोज्यं रुडी माणजो ॥१॥
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वाक्य का अर्थ यह है कि जो स्त्री अपने पति के साथ रह कर आनन्द भोगना चाहे वह अपने पति में अपना सच्चा प्रेम रक्खे और पति से ही अपने को सौभाग्यवती समझे तथा अपने स्वामी का ही स्नेह सच्चा समझे और सब
संह को झूठा समझे और उस को चाहिये कि पति की अच्छे प्रकार से सेवा करने में ही उत्तम मौज समझे ॥ १ ॥
श्रीको स्वामी की सेवा करनी चाहिये, यह कुछ अर्वाचीन (नवीन) काल का धर्म नहीं है किन्तु यह धर्म तो प्राचीन काल से ही चला आता है और इस का कथन केवल जैन आर्य शास्त्र के ज्ञाता आर्य महात्मा लोग ही करते हों, यह बात भी नहीं समझनी चाहिये किन्तु पृथ्वी के सर्व धर्मशास्त्र और सर्व धर्मो के अग्रगन्ताओं ने भी यही सिद्धान्त निश्चित किया है, देखो ! त्रिष्टीय धर्मग्रन्थ में एक स्थान में ईशु की माता मरियम ने कहा है कि - " हे स्त्रियो ! जैसे तुम प्रभु के सी होती हो उसी प्रकार अपने पति के आधीन रहो, क्योंकि पति स्त्री का शिर रूप है" जर्थोस्ती ने पारसी लोगों के धर्मग्रन्थ जन्दावस्था में कहा है कि - "वही औरत बहुत नेक, पढ़ी हुई और चतुर है जो कि अपने पति को सर्दार तथा बादशाह गिनती है" इसी प्रकार से जर्मन देश के विद्वान् मि. टेलर ने भी कहा है कि - "स्त्री को अपने पति के ताबे में रहना, उस की सेवा करना, उस को राजी रखना, मान देना और जिस काम से उस का मन प्रसन्न हो वही काम करना चाहिये" ।
जो चतुर स्त्री ऐसा बर्ताव करेगी उस को उस का पति आप ही मान सकार देगा, जो स्त्री समझदार होगी वह तो अपने पति को नेक सलाह और मदद देने का काम आप ही करेगी ।
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स्त्री को चाहिये कि उस का पति जो उस को अन्न वस्त्र और आभूषण आदि पदार्थ देवे उन्हीं पर सन्तोष रक्खे, पति के सिवाय दूसरा पुरुष चाहे जैसा पृथ्वीपति (राजा) भी क्यों न हो तथा रूपवान् बुद्धिमान् युवा और बलवान् भी क्यों न हो तथा चाहे सब पृथ्वी का धन भी क्यों न मिलता हो तथापि उस को काकविष्ठा (कौए की विष्ठा ) के समान तुच्छ गिने और उस के सामने भी न करे, क्योंकि धर्मशास्त्रों का कथन है कि "परपुरुष का सेवन करने से स्त्री को घोर नरक की प्राप्ति होती है" देखो ! इस संसार में सब ही दृश्य
१ यह छन्द गुजराती भाषा का है ॥
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