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पश्चम अध्याय।
१७-रवि, राहु, मङ्गल और शनि, ये चार सूर्य स्वर के पाँचों तत्त्वों के स्वामी हैं।
१८-चन्द्र स्वर में पृथिवी तत्व का स्वामी बुध, जल तत्त्व का स्वामी चन्द्र, अग्नि तत्व का स्वामी शुक्र और वायु तत्त्व का स्वामी गुरु है, इस लिये अपने २ तत्त्वों में ये ग्रह अथवा वार शुभफलदायक होते हैं।
१९-पृथिवी आदि चारों तत्त्वों के क्रम से मीठा, कषैला, खारा और खट्टा, ये चार रस हैं, इस लिये जिस समय जिस रस के खानेकी इच्छा हो उस समय उसी तत्त्व का चलना समझ लेना चाहिये।
२०-अग्नि तत्त्व में क्रोध, वायु तत्त्व में इच्छा तथा जल और पृथिवी तत्त्व में क्षमा और नम्रता आदि यतिधर्मरूप दश गुण उत्पन्न होते हैं।
२१-श्रवण, धनिष्ठा, रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, अभिजित्, ज्येष्ठा और अनुराधा, ये सात नक्षत्र पृथिवी तत्व के हैं तथा शुभफलदायी हैं।
२२-मूल, उत्तराभाद्रपद, रेवती, आर्द्रा, पूर्वाषाढ़ा, शतभिषा और आश्लेषा, ये सात नक्षत्र जल तत्व के हैं।
२३-ये ( उक्त) चौदह नक्षत्र स्थिर कार्यों में अपने २ तत्वों के चलने के समय में जानने चाहियें।
२४-मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, स्वाती, कृत्तिका, भरणी और पुष्य, ये सात नक्षत्र अग्नि के हैं। __२५-हस्त, विशाखा, मृगशिर, पुनर्वसु, चित्रा, उत्तराफाल्गुनी और अश्विनी, ये सात नक्षत्र वायु के हैं।
२६-पहिले आकाश, उस के पीछे वायु, उस के पीछे अग्नि, उस के पीछे पानी और उस के पीछे पृथिवी, इस क्रम से एक एक तत्त्व एक एक के पीछे चलता है।
२७-पृथिवी तत्त्व का आधार गुदा, जल तत्त्व का आधार लिङ्ग, अग्नि तत्व का आधार नेत्र, वायु तत्त्व का आधार नासिका (नाक) तथा आकाश तस्व का आधार कर्ण (कान) है।
२८-यदि सूर्य स्वर में भोजन करे तथा चन्द्र स्वर में जल पीवे और बाई करवट सोवे तो उस के शरीर में रोग कभी नहीं होगा।
२९-यदि चन्द्र स्वर में भोजन करे तथा सूर्य स्वर में जल पीवे तो उस के शरीर में रोग अवश्य होगा।
१-यदि कोई पुरुष पाँच सात दिन तक बराबर इस व्यवहार को करे तो वह अवश्य रुग्ण (रोगी) हो जावेगा, यदि किसी को इस विषय में संशय हो तो वह इस का वर्ताव कर के निश्चय कर ले।
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