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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते" अर्थात् सब गुण कञ्चन ( सोने) का आश्रय लेते हैं, इसी प्रकार नीतिशास्त्र में भी कहा गया है कि-"न हि तद्विद्यते किञ्चित् , यदर्थेन न सिध्यति" अर्थात् संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जो कि धन से सिद्ध न हो सकता हो, तात्पर्य यही है कि-धन से प्रत्येक पुरुष सब ही कुछ कर सकता है, देखो ! यदि आप लोग कलों और कारखानों के काम को नहीं जानते हैं तो द्रव्य का व्यय करके अनेक देशों के उत्तमोत्तम कारीगरों को बुला कर तथा उन्हें स्वाधीन रख कर आप कारखानों का काम अच्छे प्रकार से चला सकते हैं। __ अब अन्त में पुनः एक बार आप लोगों से यही कहना है कि-हे प्रिय मित्रो ! अब शीघ्र ही चेतो, अज्ञान निद्रा को छोड़ कर स्वजाति के सद्गुणों की वृद्धि करो और देश के कल्याणरूप श्रेष्ठ व्यापार की उन्नति कर उभय लोक के सुख को प्राप्त करो।
यह पञ्चम अध्याय का ओसवाल वंशोत्पत्तिवर्णन नामक प्रथम प्रकरण
समाप्त हुआ ॥
द्वितीय प्रकरण। पोरवाल वंशोत्पत्तिवर्णन। .
पोरवाल वंशोत्पत्ति का इतिहास । पद्मावती नगरी (जो कि आबू के नीचे वसी थी ) में जैनाचार्य ने प्रतिबोध देकर लोगों को जैनधर्मी बना कर उन का पोरवाल वंश स्थापित किया था।
१-ये (पोरवाल) जन दक्षिण मारवाड़ (गोढ़वाड़) और गुजरात में अधिक हैं, इन लोगों का ओसवालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध नहीं होता है, किन्तु केवल भोजनव्यवहार होता है, इन का एक फिरका जाँघड़ानामक है, उस में २४ गोत्र हैं तथा उस में जैनी और वैष्णव दोनों धर्म वाले हैं, इन का रहना बहुत करके चम्बल नदी की छाया में रामपुरा, मन्दसौर, मालवा तथा हुल्कर सिंध के राज्य में है अर्थात् उक्त स्थानों में वैष्णव पोरवालों के करीब तीन हजार घर वसते हैं, इन के सिवाय बाकी के जैनधर्मधारी पोरवाल जाँघड़े हैं जो कि मेदपुर और उज्जैन आदि में निवास करते हैं, ऊपर कह चुके हैं कि-जाँघड़ा फिरकेवाले पोरवालों के २४ गोत्र हैं, उन २४ गोत्रों के नाम ये हैं-१-चौधरी ! २-काला । ३-धनघड़। ४-रतनावत । ५-धन्यौत्य । ६-मजावर्या । ७-डवकरा । ८-भादल्या । ९-कामल्या । १० सेट्या । ११-ऊधिया । १२-बँखण्ड । १३-भूत । १४-फरक्या । १५-लमेपर्या । १६ -मंडावर्या । १७-मुनियां । १८-घाँट्या । १९-गलिया । २०-मेसोटा । २१-नवेपर्या । २२-दानगड़ । २३-महता । २४-खरड्या ।।
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