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जैनसम्प्रदायशिक्षा । उन्नीसवीं संख्या-गैलडा गोत्र । विक्रम संवत् १५५२ (एक हज़ार पाँच सौ बावन ) में गहलोत राजपूत गिरधर को जैनाचार्य श्री जिनहंस सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध दे कर उस का ओस. वाल वंश और गैलड़ा गोत्र स्थापित किया था, इस गोत्र में जगत्सेठे एक बड़े नामी पुरुष हुए तथा उन्हीं के कुटुम्ब में बनारसवाले राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द भी बड़े विद्वान् हुए, जिन पर प्रसन्न होकर श्रीमती गवर्नमेंट ने उन्हें उक्त उपाधि दी थी।
बीसवीं संख्या-लोढा गोत्र । __ महाराज पृथ्वीराज चौहान के राज्य में लाखन सिंह नामक चौहान अजमेर का सूवेदार था, उस के कोई पुत्र नहीं था, लाखन सिंह ने एक जैनाचार्य की बहुत कुछ सेवा भक्ति की और आचार्य महाराज से पुत्रविषयक अपनी कामना प्रकट की, जैनाचार्य ने कहा कि-"यदि तू दयामूल जैन धर्म का ग्रहण करे तो तेरे पुत्र हो सकता है" लाखन सिंह ने ऊपरी मन से इस बात का स्वीकार कर लिया
१-एक वृद्ध महात्मा से यह भी सुनने में आया है कि-गैलड़ा राजपूत तो गहलोत हैं और प्रतिबोध के समय आचार्य महाराज ने उक्त नाम स्थापित नहीं किया था किन्तु प्रतिबोध के प्राप्त करने के बाद उन में गैलाई (पागलपन) मौजूद थी अतः उन के गोत्र का गैलड़ा नाम पड़ा ॥ २-प्रथम तो ये गरीबी हालत में थे तथा नागौर में रहते थे परन्तु ये पायचन्द गच्छ के एक यति जी की अत्यन्त सेवा करते थे, वे यति जी ज्योतिष् आदि विद्याओं के पूर्ण विद्वान थे. एक दिन रात्रि में तारामण्डल को देख कर यति जी ने उन से कहा कि-"यह बहुत ही उत्तम समय है, यदि इस समय में कोई पुरुष पूर्व दिशा में परदेश को गमन करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो" इस बात को सुनते ही ये वहाँ से उसी समय निकले परन्तु नागौर से थोड़ी दूर पर ही इन्हों ने रास्ते में फण निकाले हुए एक बड़े भारी काले सर्प को देखा, उसको देख कर ये भयभीत हो कर वापिस लौट आये और यति जी से सब वृत्तान्त कह सुनाया, उस को सुन कर यति जी ने कहा कि-"अरे ! सर्प देखा तो क्या हुआ ? तू अब भी चला जा, यद्यपि अब जाने से तू राजा तो नहीं होगा परन्तु हाँ लक्ष्मी तेरे चरणों में लोटेगी और तू जगत्सेठ के नाम से संसार में प्रसिद्ध होगा" यह सुनते ही ये वहाँ से चल दिये और यति जी के कथन के अनुमार ही सब बात हुई अर्थात् इन को खूब ही लक्ष्मी प्राप्त हुई और ये जगत्सेठ कहलाये, इन का विशेष वर्णन यहाँ पर लेख के बढ़ने के भय से नहीं कर सकते हैं किन्तु इन के विषय में इतना ही लिखना काफी है कि लक्ष्मी इन के लिये जङ्गल और पानी के बीच में भी हाजिर खड़ी रहती थी, इन का स्थान मुर्शिदाबाद में पूर्व काल में बड़ा ही सुन्दर बना हुआ था, परन्तु अब उस को भागीरथी ने गिरा दिया है, अब उन के स्थान पर गोद आये हुए पुत्र हैं और वे भी जगत्सेठ के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन का कायदा भी समयानुसार अब भी कुछ कम नहीं है उन के दो पुत्ररत्न हैं उन की बुद्धि और तेज को देख कर आशा की जाती है कि वे भी अपने बड़ों की कीर्तिरूप वृक्ष का सिञ्चन कर अवश्य अपने नाम को प्रदीप्त करेंगे, क्योंकि अपने सत्पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही सुपुत्रों का परम कर्त्तव्य हैं । ३-इस गोत्र की उत्पत्ति के दो लेख हमारे देखने में आये हैं तथा एक दन्तकथा, भी सुनने में आई है परन्तु संवत् और प्रतिबोध देने वाले जैनाचार्य का नाम नहीं देखने में आया है ।।
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