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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
अनुसार चलकर और पण्डित पुरुष को यथार्थता ( सच्चाई ) से वश में करना चाहिये ॥ ११० ॥
बलवन्तहि अनुकूल है, निवलहिँ है प्रतिकूल |
वश कर पुनि निज सम रिपुहिँ शक्ति विनय ही मूल ॥ १११ ॥ बलवान् शत्रु को उस के अनुकूल होकर वश में करे, निर्बल शत्रु को उस के प्रतिकूल होकर वश में करे और अपने बराबर के शत्रु को युद्ध करके अपवा विनय करके वश में करे ॥ १११ ॥
जिन जिन को जो भाव है, तिन तिन को हित जान ||
मन में घुसि निज वश करै, नहिँ उपाय वस आन ॥ ११२ ॥ जिस २ पुरुष का जो २ भाव है (जिस जिस पुरुष को जो २ वस्तु अच्छी लगती है) उस २ पुरुष के उसी २ भाव को तथा हित को जानकर उस के मन में घुस कर उस को वश में करना चाहिये, क्योंकि इस के सिवाय वश में करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ ११२ ॥
अतिहिँ सरल नहिँ हूजिये, जाकर वन में देख ॥ सरल तरू तहँ छिदत हैं, बांके तजै विशेख ॥
११३ ॥
मनुष्य को अत्यन्त सीधा भी नहीं हो जाना चाहिये - किन्तु कुछ टेड़ापन भी रखना चाहिये, क्योंकि देखो ! जंगल में सीधे वृक्षों को लोग काट ले जाते हैं। और टेढ़ों को नहीं काटते हैं ॥ ११३ ॥
जिनके घर धन तिनहिँ के, मित्ररु बान्धव लोग ॥
जिन के धन सोई पुरुष, जीवन ताको योग ॥ ११४ ॥
जिस के पास धन है उसी के सब मित्र होते हैं, जिस के पास धन है उसी के सब भाई बन्धु होते हैं, जिस के पास धन है वही संसार में मनुष्य गिना जाता है और जिस के पास धन है उसी का संसार में जीना योग्य है ॥ ११४ ॥ मित्र दार सुत सुहृद हू, निरधन को तज देत ॥
धन लखि आश्रित हुवै, धन बान्धव करि देत ॥ ११५ ॥ जिस के पास धन नहीं है उस पुरुष को मित्र, स्त्री, पुत्र और भाई बन्धु भी छोड़ देते हैं और धन होने पर वे ही सब आकर इकट्ठे होकर उस के आश्रित हो जाते हैं, इससे सिद्ध है कि - जगत् में धन ही सब को बान्धव बना देता है ॥ ११५ ॥
१ - क्योंकि बलवान् शत्रु प्रतिकूलता से ( लढ़ाई आदि के द्वारा ) वश में नहीं किया जा सकता है ॥। २ - गुसांई तुलसीदासजी ने सत्य कहा है कि - " टेढ़ जानि शंका सब काहू । वक्र चन्द्र जिमि यसै न राहू” ॥ अर्थात् टेढ़ा जानकर सब भय मानते हैं- जैसे राहु भी टेढ़े चन्द्रमा को नहीं ग्रसता है ॥
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