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पञ्चम अध्याय ।
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धर्मोपदेश से कांकू को प्रतिबोध प्राप्त हुआ, पाताक ने गुरु जी से कहा कि- "महाराज ! द्रव्य तो मेरे पास बहुत है परन्तु सन्तान कोई नहीं है, इस लिये मेरा चित्त सदा दुःखित रहता है" यह सुन कर गुरु महाराज ने कहा कि - " तू दयामूल धर्म का ग्रहण कर तेरे पुत्र होवेंगे" इस वचन पर श्रद्धा रख कर पाताक ने दयामूल धर्म का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज अन्यन्त्र विहार कर गये, काकू बहुत दुर्बल शरीर का था इस लिये लोग उसे शंका नाम से पुकारने लगे, पाताक के दो पुत्र हुए जिनका काला और बांका था, इन में से का को नगर सेठ का पद मिला, राँका सेठ की औलादवाले लोग रॉका और सेठिया कहलाये, पाताक के प्रथम पुत्र काला की औलादवाले लोग काला और बोंक कहलाये तथा बांका की औलादवाले लोग बाका गोरा और दक कहलाये, बस इन का वर्णन यही निम्नलिखित है:
१ - राँका । २- सेठिया । ३ - काला ।
४-बे - बोंक । ५- बाँका | ६ - गोरा । ७-दक 1
बारहवी संख्या - राखेचाह, पूगलिया गोत्र ।
पूगल का राजा भाटी राजपूत सोनपाल था तथा उस का पुत्र केलणदे नामक था, उस के शरीर में कोढ़ का रोग हुआ, राजा सोनपाल ने पुत्र के रोग के मिटाने के लिये अनेक यत्र किये परन्तु वह रोग नहीं मिटा, विक्रमसंवत् ११८७ ( एक हजार एक सौ सतासी ) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ पधारे, राजा सोनपाल बहुत से आदमियों को साथ लेकर आचार्य महाराज के पास गया और नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर बैठ गया तथा गुरु जी से हाथ जोड़ कर बोला कि - "महाराज ! मेरे एक ही पुत्र है और उस के कोढ़ रोग हो गया है, मैं ने उस के मिटने के लिये बहुत से उपाय भी किये परन्तु वह नहीं मिटा, अब मै आप की शरण में आया हूँ, यदि आप कृपा करें तो अवश्य मेरा पुत्र नीरोग हो सकता है, यह मुझ को दृढ़ विश्वास है" राजा के इस वचन को सुन कर गुरु जी ने कहा कि - "तुम इस भव और पर भव में कल्याण करनेवाले दयामूल धर्म का ग्रहण करो, उस के ग्रहण करने से तुम को सब सुख मिलेंगे" राजा सोनपाल ने गुरु जी के बचन को आदरपूर्वक स्वीकार किया, तब गुरु जी ने कहा कि - "तुम अपने पुत्र को यहाँ ले आओ और गाय को ताजा घी भी लेते आओ" गुरु जी के वचन को सुन कर राजा सोनपाल ने शीघ्र ही गाय का ताजा घी मँगवाया और पुत्र को लाकर हाजिर किया, गुरु महाराज उस पर दो घंटे तक स्वयं दृष्टि
वह घृत केलणदे के शरीर पर लगवाया और पाश किया, इस प्रकार तीन दिन तक ऐसा ही किया, चौथे दिन केलणदे कुमार का शरीर कञ्चन के समान हो गया, राजा सोनपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उस के मन में अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा की चाँह को देख कर आचार्य महाराज ने वासक्षेप देने के समय उस का महाजन वंश और राखेचाह गोत्र स्थापित किया ।
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