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पञ्चम अध्याय।
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अर्थात् बुद्धि के पाने का फल-तत्त्वों का विचार करना है, मनुष्य शरीर के पाने का सार (फल) व्रत का (पच्चक्खाण आदि नियम का) धारण करना है, धन ( लक्ष्मी) के पाने का सार सुपात्रों को दान देना है तथा वचन के पाने का फल सब से प्रीति करना है" ॥ १॥
"हे नरेन्द्र ! नीतिशास्त्र में कहा गया है किःयथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घर्षणच्छेदनतापताइनैः॥ तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः" ॥१॥
"अर्थात्-कसौटी पर घिसने से, छेनी से काटने से, अग्नि में तपाने से और हथौड़े के द्वारा कूटने से, इन चार प्रकारों से जैसे सोने की परीक्षा की जाती है उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग धर्म की भी परीक्षा चार प्रकार से करते हैं अर्थात् श्रुत (शास्त्र के वचन) से, शीलसे, तप से तथा दया से" ॥१॥ ___ "इन में से श्रुत अर्थात् शास्त्र के वचन से धर्म की इस प्रकार परीक्षा होती है कि जो धर्म शास्त्रीय (शास्त्र के) वचनों से विरुद्ध न हो किन्तु शास्त्रीय वचनों से समर्थित (पुष्ट किया हुआ) हो उस धर्म का ग्रहण करना चाहिये और ऐसा धर्म केवल श्री वीतरागकथित है इस लिये उसी का ग्रहण करना चाहिये, हे राजन् ! मैं इस बात को किसी पक्षपात से नहीं करता हूँ किन्तु यह बात बिल. कुल सस्य है, तुम समझ सकते हो कि जब हम ने संसार को छोड़ दिया तब हमें पक्षपात से क्या प्रयोजन है ? हे राजन् ! आप निश्चय जानो कि-न तो वीतराग महावीर स्वामीपर मेरा कुछ पक्षपात है (कि महावीर स्वामी ने जो कुछ कहा है वही मानना चाहिये और दूसरे का कथन नहीं मानना चाहिये) और न कपिल आदि अन्य ऋषियों पर मेरा द्वेष है (कि कपिल आदि का वचन नहीं मानना चाहिये) किन्तु हमारा यह सिद्धान्त है कि जिस का वचन शास्त्र और युक्ति से अविरुद्ध ( अप्रतिकूल अर्थात् अनुकूल) हो उसी का ग्रहण करना चाहिये"॥१॥ __ "धर्म की दूसरी परीक्षा शील के द्वारा की जाती है-शीलें नाम आचार का है, वह (शील) द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है-इन में से ऊपर की शुद्धि को द्रव्यशील कहते हैं तथा पाँचों इन्द्रियों के और क्रोध आदि कषायों के जीतने को भावशील कहते हैं, अतः जिस धर्म में उक्त दोनों प्रकार का शील कहा गया हो वही माननीय है"।
१-जीव और अजीव आदि नौ तत्त्व हैं ॥ २-वचन के द्वारा धर्म की परीक्षा । सिद्धान्त न्यायशास्त्र से जाना जा सकता है ॥ ३-यही समस्त बुद्धिमानों का भी सिद्धान्त है । ४-"शील स्वभावे सद्वृत्ते" इत्यमरः॥
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