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पञ्चम अध्याय।
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वाममार्गी (कूड़ा पन्थी) देवी के उपासक तथा चामुण्डा (साचिया देवी) के भक्त थे इस लिये दयाधर्म (जैनधर्म) के अनुसार साधु आदि को माहारादि के देने की विधि को ये लोग नहीं जानते थे।
निदान दोनों गुरु और चेलों का मासक्षमण तप पूरा हो गया तथा कल्प के पूर हो जाने से उक्त महाराज ज्योंही विहार करने के लिये उद्यत हुए त्योंही नगरी की अधिष्ठात्री साचियाय देवी ने अवधि ज्ञान से देख कर यह विचारा किहाय ! बड़े ही खेद की बात है कि-ऐसे मुनि महात्मा इस पाँच लाख मनुष्यों की वस्ती में से एक महीने के भूखे इस नगरी से विदा होते हैं, यह विचार कर उक्त (साचियाय) देवी गुरुजी के पास आकर तथा वन्दन और नमन आदि शिष्टाचार करके सन्मुख खड़ी हुई और गुरुजी से कहा कि-"हे महाराज! कुछ चमकार हो तो दिखलाओ" देवी के इस वचन को सुन कर गुरुजी ने कहा कि "हे देवि! कारण के विना साधुजन लब्धि को नहीं फोरते हैं" इस पर पुनः देवी ने आचार्य से कहा कि-"हे महाराज ! धर्म के लिये मुनि जन लब्धि को फोरते ही हैं, इस में कोई दोष नहीं है, इस सब विषय को आप जानते ही हो अतः मैं विशेष आप से क्या कहूँ, यदि आप यहाँ लब्धि को फोरेंगे तो यहाँ दयामूल धर्म फैलेगा जिस से सब को बड़ा भारी लाभ होगा"; देवी के वचन को सुन कर सूरि महाराज ने उस पर उपयोग दिया तो उन्हें देवी का कथन ठीक मालूम हुआ, निदान लब्धि का फोरना उचित जान महाराज ने देवी से रुई की एक पोनी मँगवाई और उस का एक पोनिया सर्प (साँप) बन गया तथा उस सर्प ने भरी सभा में जाकर राजा उपलदे पँवार के राजकुमार महीपाल को काटा, सर्प के काटते ही राजकुमार मूर्छित होकर पृथ्वीशायी हो गया, सर्प के विष की निवृत्ति के लिये राजा ने मन्त्र यत्र तत्र और ओषधि आदि अनेक उपचार करवाये परन्तु कुछ भी लाभ न हुआ, अब क्याथा-तमाम रनिवास तथा ओसियाँ नगरी में हाहाकार मच गया, एकलौते कुमार की यह दशा देख राजा के हृदय में जो शोक ने बसेरा किया भला उस का तो कहना ही क्या है ! एकमात्र आँखों के तारे राजकुमार की यह दशा होने पर भला राजवंश में अन्न जल किस को अच्छा लगता है और जब राजवंश ही निराहार होकर सन्तप्त हो रहा है तब नगरीवासी स्वामिभक्त प्रजाजन अपनी उदरदरी को कैसे भर सकते हैं ! निदान भूखे प्यासे और शोक से सन्तप्त सब ही लोग इधर उधर दौड़ने लगे, यन्त्र मन्त्रादिवेत्ता अनेक जन ढूँढ २ कर उपचारादि के लिये बुलाये गये परन्तु कुछ न हुआ, होता कैसे कहीं
लोग व्यभिचार को ही धर्म मानते हैं इस लिये जो लोग इस मत में फंसे हुए हैं उन को इसे अवश्य छोड़ देना चाहिये, क्योंकि मनुष्यजन्म बहुत कठिनता से प्राप्त होता है, इस लिये इसे व्यर्थ में न गवा कर इस के लक्ष्य पर ध्यान देना चाहिये अर्थात् परम यल और पुरुषार्थ से सन्मान का आश्रय लेकर मनुष्य जन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों फलों को प्राप्त करना चाहिये कि जिस से इस जीवात्मा को उभयलोक में सुख और शान्ति प्राप्त हो ।
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