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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
५६ - कांजिकादि घृत - हींग, त्रिकुटी, चव्य और सेंधा निमक, इन सब को प्रत्येक को चार २ तोले लेवे तथा कल्क कर इस में एक सेर घृत और चार सेर कांजी को डाल कर पचावे, यह कांजिकघृत उदररोग, शूल, विबन्ध, अफरा, आमवात, कमर की पीड़ा और ग्रहणी को दूर करता है तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है ।
५७ - शृङ्गवेरादिघृत - अदरख, जबाखार, पीपल और पीपरामूल, इन को चार २ तोले लेकर कल्क करे, इस में एक सेर घृत को तथा चार सेर कांजी को डाल कर पकावे, यह घृत विबन्ध, अफरा, शूल, आमवात, कमर की पीड़ा और ग्रहणी को दूर करता है तथा नष्ट हुई अग्नि को पुनः उत्पन्न करता है ।
५८ - प्रसारणीलेह - प्रसारणी ( खीप ) के चार सेर क्वाथ में एक सेर घृत डाल कर तथा सोंठ, मिर्च, पीपल और पीपरामूल, इन को चार २ तोले लेकर तथा कल्क बना कर उस में डाल कर घृत को सिद्ध करे, यह घृत आमवात रोग को दूर कर देता है ।
५९ - प्रसारणीतैल- प्रसारणी के रस में अंडी के तेल को सिद्ध कर लेना चाहिये तथा इस तेल को पीना चाहिये, यह तेल सब दोषों को तथा कफ के रोगों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
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- द्विपञ्चमूल्यादितैल - दशमूल का गोंद, फल, दही और खट्टी कांजी, इन के साथ तेल को पकाकर सिद्ध कर लेना चाहिये, यह तैल कमर की पीड़ा, ऊरुओं की पीड़ा, कफवात के रोग और बालग्रह, इन को दूर करना है तथा इस तेल की वस्ति करने से ( पिचकारी लगाने से ) अग्नि प्रदीप्त होती है ।
६१ - आमवातारिरस - पारा एक तोला, गन्धक दो तोले, हरड़ तीन तोले, आँवला चार तोले, बहेड़े पांच तोले, चीते ( चित्रक ) की छाल छः तोले और गूगुल सात तोले, इन सब का उत्तम चूर्ण करे, इस में अंडी का तेल मिलाकर पी, इस से आमवात रोग शान्त हो जाता है, परन्तु इस औषधि के ऊपर दूध का पीना तथा मूंग के पदार्थों का खाना वर्जित ( मना ) है
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पथ्यापथ्य —- इस रोग में दही, गुड़, दूध, पोई का साग, उड़द तथा पिसा हुआ अन्न (चून और मैदा आदि ), इन पदार्थों को त्याग देना चाहिये अर्थात् ये पदार्थ इस रोग में अपथ्य हैं, इन के सिवाय जो पदार्थ अभिष्यन्दी ( देह के छिद्रों को बन्द करनेवाले ), भारी तथा मलाई के समान गिलगिले हैं उन सब का भी त्याग कर देना चाहिये ।
१- त्रिकुटा अर्थात् सोंठ, मिर्च और पीपल, इसे त्रिकटु भी कहते हैं ॥ २- काँजी में सिद्ध होने के कारण इस घृत को कांजिक घृत कहते हैं । ३ - अर्थात् अग्नि की मन्दता को मिटाता है ॥ ४ - इसे पसरन भी कहते हैं जैसा कि पहिले लिख चुके हैं ॥ ५- बेल, गंभारी, पाडर, अरनी और स्योनाक, यह बृहत्पञ्चमूल तथा शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी कठेरी, बड़ी कढेरी और गोखुरू, यह लघुपञ्चमूल, ये दोनों मिलकर दशमूल कहा जाता है ॥
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