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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
तीसरा कर्म अनुवासन है-यह वस्ति (गुदा में पिचकारी लगाने ) का प्रथम भेद है तात्पर्य यह है कि तैल आदि स्नेहों से जो पिचकारी लगाते हैं उस को अनुवासन वस्ति कहते हैं, इसी का एक भेद मात्रा वस्ति है, मात्रा वस्ति में धृत आदि की मात्रा आठ तोले की अथवा चार तोले की ली जाती है। अनुवासन वस्ति के अधिकारी-रूक्ष देह वाला, तीक्ष्णाग्नि वाला तथा केवल वातरोग वाला, ये सब इस वस्ति के अधिकारी हैं। अनुवासन वस्ति के अनधिकारीकुष्ठरोगी, प्रमेहरोगी, अत्यन्त स्थूल शरीर वाला तथा उदररोगी, ये सब इस वस्ति के अनधिकारी हैं, इन के सिवाय अजीर्णरोगी, उन्माद वाला, तृषा से व्याकुल, शोथरोगी, मूञ्छित, अरुचि युक्त, भयभीत, श्वासरोगी तथा कास और क्षयरोग से युक्त, इन को न तो यह (अनुवासन ) वस्ति देनी चाहिये और न निरूहण वस्ति (जिस का वर्णन आगे किया जावेगा) देनी चाहिये । वस्ति का विधान-वस्ति देने को नेत्र (नली) सुवर्ण आदि धातु की, वृक्ष की, बांस की, नरसल की, हाथीदाँत की, सींग के अग्रभाग की, अथवा स्फटिक आदि मणियों की बनानी चाहिये, एक वर्ष से लेकर छः वर्ष तक के बालक के लिये छ: अंगुल के, छ: वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक के लिये आठ अंगुल के तथा बारह वर्ष से अधिक अवस्था वाले के लिये बारह अंगुल के लम्बे वस्ति के नेत्र बनाने चाहिये, छः अंगुल की नली में मूंग के दाने के समान, आठ अंगुल की नली में मटर के समान तथा बारह अंगुल की नली में बेर की गुठली के समान छिद्र रक्खे, नली चिकनी तथा गाय की पूँछ के समान (जड़ में मोटी और आगे क्रम २ से पतली) होनी चाहिये, नली मूल में रोगी के अंगूठे के समान मोटी होनी चाहिये
और कनिष्ठिका के समान स्थूल होनी चाहिये तथा गोल मुख की होनी चाहिये, नली के तीन भागों को छोड़ कर चतुर्थ भाग रूप मूल में गाय के कान के समान दो कर्णिकायें बनानी चाहियें तथा उन्हीं कर्णिकाओं में चर्म की कोथली (थैली) को दो बन्धनों से खूब मजबूत बांध देना चाहिये, वह वस्ति लाल वा कषैले रंग से रंगी हुई, चिकनी और दृढ़ होनी चाहिये, यदि घाव में पिचकारी मारनी हो तो उस की नली आठ अंगुल की मूंग के समान छिदवाली
और गीध के पांख की नली के समान मोटी होनी चाहिये । वस्ति के गुण-वस्ति का उत्तम प्रकार से सेवन करने से शरीर की पुष्टि, वर्ण की उत्तमता, बल की वृद्धि, आरोग्यता और वायु, की वृद्धि होती है । ऋतु के अनुसार वस्ति-शीत काल और वसन्त ऋतु में दिन में स्नेह वस्ति देना चाहिये तथा ग्रीष्म वर्षा और शरद ऋतु में स्नेह वस्ति रात्रि में देना चाहिये. वस्ति विधि-रोगी को बहुत चिकना न हो ऐसा भोजन करा के यह वस्ति देनी चाहिये किन्तु बहुत चिकना भोजन कराके वस्ति नहीं देनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दो प्रकार से ( भोजन में और वस्ति में ) स्नेह का उपयोग होने से मद और मूर्छा रोग उत्पन्न होते हैं तथा अत्यन्त रूक्ष पदार्थ खिला कर वस्ति के देने से बल और वर्ण का नाश होता है, अतः अल्पस्निग्ध पदार्थों को खिला कर वस्ति करनी चाहिये। वस्ति की मात्रा-यदि वस्ति हीन मात्रा से दी जावे तो यथोचित कार्य को नहीं करती है, यदि अधिक मात्रा से दी जावे तो अफरा, कृमि और अतीसार को उत्पन्न करती है इस लिये वस्ति न्यूनाधिक मात्रा से नहीं देनी चाहिये, अनुवासन वस्ति में स्नेह की छः पल की मात्रा उत्तम, तीन पल की मध्यम और डेढ़ पल की मात्रा अधम मानी गई है, स्नेह में जो सोंफ और सेंधे नमक का चूर्ण डाला जावे उस की मात्रा छः मासे की उत्तम, चार मासे की मध्यम और दो मासे की हीन है। वस्ति का समय-विरेचन देने के बाद ७ दिन के पीछे जब देह में बल आ जावे तब अनुवासन वस्ति देनी चाहिये । वस्ति देने की रीति-रोगी के खूब तेल की मालिश कराके धीरे २ गर्म जल से बफारा दिला कर तथा भोजन कराके कुछ इधर उधर घुमा कर तथा मल मूत्र और अधोवायु का त्याग करा के सेह वस्ति देनी चाहिये, इस रीति यह है कि-रोगी को
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