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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
अजीर्णकारी पदार्थ का भोजन, शीतल जल का पीना, व्यायाम, मैथुन, तेल की मालिस और क्रोध का करना, इन सब का एक दिन तक त्याग करना चाहिये।
दूसरा कर्म विरेचन है-इस की यह विधि है कि-प्रथम लेह, स्वेदन आर वमन करा के फिर विरेचन ( जुलाब) देना चाहिये, किन्तु वमन कराये विना विरेचन कभी नहीं देना चाहिये, क्योंकि वमन कराये विना विरेचन को दे देने से रोगी का कफ नीचे को आ कर ग्रहणी ( पाचकाग्नि ) को ढाक देता है कि जिस से मन्दाग्नि, देह का गौरव और प्रवाहिका आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, अथवा प्रथम पाचन द्रव्य से आम और कफ को पका कर फिर विरेचन देना चाहिये, शुद्ध देह वाले को शरद ऋतु और वसन्त ऋतु में विरेचन कराना चाहिये, हां यदि कुशल वैद्य विरेचन देने के विना रोगी का प्राण सङ्कट देखे तो ऋतु के नियम का त्याग कर अन्य ऋतु में भी विरेचन करा देना चाहिये, पित्त के रोग, आमवात, उदररोग, अफरा और कोष्ठ की अशुद्धि, इन में विरेचन कराना अत्यावश्यक होता है, क्योंकि देखो ! जो वात और पित्तादि दोष लंघन और पाचनादि कर्मों से जीत लिये जाते हैं वे समय पा कर कदाचित् फिर भी कुपित हो सकते हैं परन्तु वमन और विरेचन आदि संशोधनों से जो दोष शुद्ध हो जाते हैं वे फिर कभी कुपित नहीं होते हैं । विरेचन का निषेध-वलक, वृद्ध, अत्यन्त स्निग्ध, घाव से क्षीण, भयभीत, थका हुआ, प्यासा, अत्यन्त स्थूल, गर्भिणी स्त्री, नवीन ज्वर वाला, तत्काल की प्रसूता स्त्री, मन्दाग्नि वाला, मद्य से उन्मत्त, जिस के वाण आदि शल्य लग रहा हो तथा जिस ने प्रथम स्नेह और खेद न किया हो (घृत पान वा मुंजीस का सेवन किया हो ), इन को विरेचन नहीं देना चाहिये । विरेचन देने योग्य-जीर्ण ज्वरवाला, विष से व्याकुल, वातरोगी, भगंदरवाला, बवासीर; पण्डुरोग तथा उदररोग वाला, गांठ के रोग वाला, हृदय रोगी, अरुचि से पीडित, योनिरोग वाली स्त्री, प्रमेहरोगी, गोले का रोगी, प्लीहरोगी, व्रण से पीडित, विद्रधिरोगी, वमन का रोगी, विस्फोट; विधूचिका और कुष्ठ रोग वाला, कान, नाक, मस्तक, मुख, गुदा और लिंग में जिस के रोग हो प्लीहा सूजन और नेत्ररोग से युक्त, कृमिरोगी, खार के भक्षण और वादी से दुःखित, शूलरोगी तथा मूत्राघात से दुःखित, ये सब प्राणी विरेचन के योग्य होते हैं, अत्यन्त पित्त प्रकृति वाले का कोठा मृदु ( नरम ) होता है, अत्यन्त कफ वाले का मध्यम और अत्यन्त वादी वाले का कोठा क्रूर होता है ( यह वादी वाला पुरुष दुविरेच्य होता है अर्थात् इस को दस्त कराना कठिन पडता है ), इस लिये मृदु कोठे वाले को नरम मात्रा, मध्यम कोठे वाले को मध्यम औ क्रूर कोठे वाले को तीक्ष्ण मात्रा देनी चाहिये, ( मृदु, मध्यम और तीव्र औषधों से मृदु, मध्यम और तीव्र मात्रायें कहलाती हैं) नरम कोठे वाले प्राणी को दाख, दूध और अण्डी के तेल आदि से विरेचन होता है, मध्यम कोठे वाले को निसोत, कुटकी और अमलतास से विरेचन होता है और क्रूर कोठे वाले को थूहर का दूध, चोक, दन्ती और जमालगोटे आदि से विरेचन होता है । विरेचन के वेग-तीस वेग के पीछे आम का निकलना उत्तम, बीस वेग के पीछे मध्यम और दश वेग के पीछे अधम होता है । विरेचन की मात्राआठ तोले की उत्तम, चार तोले की मध्यम और दो तोले की अधम मात्रा मानी जाती है, परन्तु
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