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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
चिकित्सा- - १ - जिस रोगी के दोष अत्यन्त बढ़ रहे हों तथा जो रोगी, बलवान् हो ऐसे यक्ष्मा रोगवाले के प्रथम वमन और विरेचन आदि पाँच कर्म करने चाहियें, परन्तु क्षीण और दुर्बल रोगी के उक्त पञ्च कर्म नहीं करने चाहिये, क्योंकि क्षीण और दुर्बल रोगी उक्त पंच कर्मों के करने से शीघ्र ही मर जाता है, क्योंकि क्षीण पुरुष के शरीर में उक्त पांचों कर्म विष के समान असर करते हैं, देखो ! आचार्यो ने कहा है कि- "राजयक्ष्मा वाले रोगी का बल मल के आधीन है और जीवन शुक्र के आधीन है" इस लिये यक्ष्मा वाले रोगी के मल और वीर्य की रक्षा सावधानी के साथ करनी चाहिये ।
१- वमन, विरेचन, अनुवासन, निरूहन और नावन ( नस्य ), ये पाँच कर्म कहाते हैं, इन में से वस्ति आदि का कुछ कथन पूर्व कर चुके हैं तथापि यहां पर इन पांच कर्मों का विस्तार पूर्वक वर्णन करते हैं, सब से पहिला कर्म वमन अर्थात् उलटी कराना है, इस की यह विधि है कि शरद ऋतु, वर्षा ऋतु और वसन्त ऋतु में मन कराना चाहिये । वमन के योग्य प्राणी - बलवान्, जिस के कफ भरा हो हल्लासादि कफ के रोगों से जो पीडित हो, जिन को वमन कराना हित हो तथा जो धीर चित्त वाला हो, इन सब को वमन कराना चाहिये । वमन के योग्य रोग-विषदोष, दूधसम्बन्धी बालरोग, मन्दाग्नि, श्रीपद, अर्बुद, हृदयरोग, कुष्ठ, विसर्प, प्रमेह, अजीर्ण, भ्रम, बिदारिका, अपची, खांसी, श्वास, पीनस, अण्डवृद्धि, मृगी, ज्वर, उन्माद, रक्तातीसार, नाक तालु और ओष्ठका पकना, कान का बहना, अधिजिह्न, गलशुण्डी, अतीसार, पित्तकफज रोग, मेदोरोग और अरुचि, इन रोगों में वमन कराना चाहिये, वमन कराना निषेध - तिमिररोगी, गुल्मरोगी, उदररोगी, कृश, अत्यन्त वृद्ध, गर्भवती स्त्री, अत्यन्त स्थूल, उर:क्षत आदि घाव वाला, मद्य से पीडित, बालक, रूक्ष, निरूइण वस्ति जिस के की गई हो, उदावर्त्त तथा ऊर्ध्व रक्त पित्त वाला और केवल वातजन्य रोग युक्त, इन को वमन बडी कठिनता से होता है, इस लिये इन सब को और पाण्डुरोगी, कृमिरोगी, पढने से जिस का कण्ठ बैठ गया हो, अजीर्ण से व्यथित और जो विष के विकार से दुःखित है, इन सब को वमन कराना चाहिये, जो कफ से व्याप्त हैं, इन को महुए का काढा पिला कराना चाहिये, यदि सुकुमार, कृश, बालक, वृद्ध और वमन से डरने वालों को वमन कराना हो तो यवागू, दूध, छाछ, वा दही आदि पदार्थ पिला कर वमन कराना चाहिये, वमन कराने का यह नियम है कि जिस को वमन कराना हो उस को जो पदार्थ अनुकूल न हो अर्थात् अरुचिकारी हो तथा कफकारी हो ऐसे पदार्थ को खिला कर प्रथम दोषों को उत्क्लेशित ( निकलने के सम्मुख ) कर दे, फिर स्नेहन और स्वेदन कर के वमन करावे, क्योंकि ऐसा करने से वमन ठीक हो जाता है, सब वमनकारी पदार्थों में सेंधानिमक और शहद हितकारी हैं, वमन में बीभत्स ( जो न रुचे ऐसी ) औषधि देनी चाहिये, तथा विरेचन में रुचिकारी औषधि देनी चाहिये, काडे की ४ पल औषधों को चार सेर जल में औटावे, जब दो सेर जल शेष रहे तब उतार कर तथा छान कर वमन
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