________________
५५६
जैनसम्प्रदायशिक्षा । इस का सेवन करने से खांसी, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, गोला, श्वास, मन्दाग्नि और संग्रहणी आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।
अरुचि रोग का वर्णन । भेद (प्रकार )-अरुचि रोग आठ प्रकार का होता है-वातजन्य, पित्तजन्य, कफजन्य, सन्निपातजन्य, शोकजन्य, भयजन्य, अतिलोभजन्य और अतिक्रोधजन्य।
कारण-यह अरुचि का रोग प्रायः मन को केश देनेवाले अन्न रूप और गन्ध आदि कारणों से उत्पन्न होता है, परन्तु सुश्रुत आदि कई आचार्यों ने वात, पित्त, कफ, सन्निपात तथा मन का सन्ताप, ये पांच ही कारण इस रोग के माने हैं, अतएव उन्हों ने इस रोग के कारण के आश्रय से पांच ही भेद भी माने हैं।
लक्षण-वातजन्य अरुचि में-दाँतो का खट्टा होना तथा मुख का कषैला होना, ये दो लक्षण होते हैं।
पित्तजन्य अरुचि में-मुख-कडुआ, खट्टा, गर्म, विरस और दुर्गन्ध युक्त रहता है।
कफजन्य अरुचि में-मुख-खारा, मीठा, पिच्छल, भारी और शीतल रहता है तथा आँतें कफ से लिप्त (लिसी) रहती हैं।
शोक, भय, अतिलोभ, क्रोध और मन को बुरे लगनेवाले पदार्थों से उत्पन्न हुई अरुचि में-मुख का स्वाद स्वाभाविक ही रहता है अर्थात् वातजन्य आदि अरुचियों के समान मुख का स्वाद खट्टा आदि नहीं रहता है, परन्तु शोकादि से उत्पन्न अरुचि में केवल भोजन पर ही अनिच्छा होती है। __ सन्निपातजन्य अरुचि में-अन्न पर रुचि का न होना तथा मुख में अनेक रसों का प्रतीत होना, इत्यादि चिह्न होते हैं।
चिकित्सा-१-भोजन के प्रथम सेंधानिमक मिला कर अदरख को खाना चाहिये, इस के खाने से अन्न पर रुचि, अग्नि का दीपन तथा जीभ और कण्ठ की शुद्धि होती है। ___२-अदरख के रस में शहद डाल कर पीने से अरुचि, श्वास, खांसी, जुखाम और कफ का नाश होता है।
३-पकी हुई इमली और सफेद बूरा, इन दोनों को शीतल जल में मिला कर छान लेना चाहिये, फिर उस में छोटी इलायची, कपूर और काली मिर्च का चूर्ण डाल कर पानक तैयार करना चाहिये, इस पानक के कुरलों को वारंवार सुख में रखना चाहिये, इस से अरुचि और पित्त का नाश होता है।
४-राई, भुना हुआ जीरा, भुनी हुई हींग, सोंठ, सेंधानिमक और गाय का दही, इन सब को छान कर इस का सेवन करना चाहिये, यह तत्काल रुचि को उत्पन्न करती है तथा जठराग्नि को बढ़ाती है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com