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द्वितीय अध्याय ।
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एक भी प्रमाण जिम शास्त्र के वचनों में नहीं मिलता हो वह भी माननीय नहीं हो सकता है, वे चार प्रेमाण न्यायशास्त्र में इस प्रकार बतलाये हैं-नेत्र आदि इन्द्रिों से साक्षात् वस्तु के ग्रहण को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं. लिंग के द्वारा लिङ्गी के ज्ञान को अनुमान प्रमाण कहते हैं-जैसे धूम को देख कर पर्वत में अग्नि का ज्ञ न होना आदि. तीसरा उपमान प्रमाण है-इस को सादृश्यज्ञान भी कहते है, चौथा शब्द प्रमाण है अथात् आप्त पुरुष का कहा हुआ जो वाक्य है उस को शब्द प्रमाण तथा आगम प्रमाण भी कहते हैं। परन्तु यहां पर यह भी जान लेना चाहिटे कि -आप्तवाक्य अथवा आगम प्रमाण वही हो सकता है जो वाक्य रागद्वेष से रहित सर्वज्ञ का कथित है और जिस में किसी का भी पक्षपात तथा स्वार्थसिद्धि न हो और जिस में मुक्ति के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया गया हो, ऐसे कथन से युक्त केवल सूत्रग्रन्थ हैं, इस लिये वे ही बुद्धिमानों को मानने योग्य हैं, यह 4 की प्रथम परीक्षा कही गई ॥
दुगरे प्रकार से शील के द्वारा धर्म की परीक्षा की जाती है-शील आचार को करते हैं, उस (शील) के द्रव्य और भाव के द्वारा दो भेद हैं-द्रव्य के द्वारा नील उस को कहते है कि-ऊपर की शुद्धि रखना तथा पांचों इन्द्रियों को
और कोध आदि (क्रोध, मान, माया और लोभ ) को जीतना, इस को भावशील कहते हैं. इस लिये दोनों प्रकार के शील से युक्त आचार्य जिस धर्म के उपदेशक और गुरु हों तथा काञ्चन और कामिनी के त्यागी हों उन को श्रेष्ट सम झना चाहिये और उन्हीं के वाक्य पर श्रद्धा रखनी चाहिये किन्तु-गुरु नाम धरा; अथवा देव और ईश्वर नाम धराके जो दासी अथवा वेश्या आदि के भोगी हों तो न तो उन को देव और गुरु समझना चाहिये और न उन के वाक्य पर श्रद्धा करनी चाहिये, इसी प्रकार जिन शास्त्रों में ब्रह्मचर्य से रहित पुरुषों को देव अथवा गुरु लिखा हो-उन को भी कुशाम समझना चाहिये और उन के वाक्यां पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिये, यह धर्म की दूसरी परीक्षा कही गई ॥
धो की तीसरी परीक्षा तप के द्वारा की जाती है-वह तप मुख्यतया बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है—फिर उस ( तप) के बारह भेद कहे हैं.-'मर्थात् छः प्रकार का वाह्य (बाहरी) और छः प्रकार का आभ्यन्तर ( भी तरी ) तप है, बाह्य तप के छः भेद-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग. कायक्लेश और संलीनता हैं । अब इन का विशेष स्वरूप इस प्रकार से समझना चाहिये:
१.-जिस में आहार का त्याग अर्थात् उपवास किया जावे, वह अनशन तप कहल ता है।
२-एक, दो अथवा तीन ग्रास भूख से कम खाना, इस को ऊनोदरी तप कहते हैं।
१--प्रत्यक्ष आदि चारों प्रमाणों का वर्णन न्यायदर्शन आदि ग्रन्थों में देखो !!
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