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चतुर्थ अध्याय ।
मनुष्य जाति में पुरुषत्व ( पराक्रम) के नाशरूपी महाखराबी, वीर्य सम्बन्धी अनेक खराबियाँ और उन से उत्पन्न हुई अनेक अनीतियों का इसी से जन्म होता हैं, क्योंकि मन की निर्बलता से सब पाप और सब दुर्गुण उत्पन्न होते हैं और मन की निर्बलता को जन्म देनेवाला यही निकृष्ट शारीरिक पाप ( ब्रह्मचर्थ का भङ्ग अर्थात् माष्टर बेशन) हैं, सत्य तो यह है कि इस के समान दूसरा कोई भी पाप संसार में नहीं देखा जाता है, यह पाप वर्तमान समय में बहुत कुछ फैला हुआ है, इस पर भी आश्चर्य और दुःख की बात तो यह है कि लोग इस पाप से होनेवाले अनर्थों को जान कर भी इस पाप के आचरण से उत्पन्न हुई खराबियों के देखने से पहिले नहीं चेतते हैं अर्थात् अनभिज्ञ ( अनजान ) के समान हो कर अँधेरे ही में पड़े रहते हैं और अपने होनहार सन्तान को इस से बचाने का उद्योग नहीं करते हैं, तात्पर्य यह हैं कि-एक जबान लड़का इस पापाचरण से जब तक अपने शरीर की दुर्दशा नहीं कर लेता है। तब तक उसके माता पिता सोते ही रहते हैं, परन्तु जब यह पापाचरण जबान मनुष्यों पर पूरे तौर से आक्रमण ( हमला) कर लेता है और उन की भविष्यत् की सर्व आशाओं को तोड़ डालता है तब हाय २ करते हैं, यदि वाचकवृन्द गम्भीर भाव से विचार कर देखेंगे तो उन को मालूम हो जावेगा कि इस गुप्त पापाचरण से मनुष्यजाति की जैसी २ अवनति और कुदशा होती है वैसी अवनति और कुदशा ऊपर कही हुई चोरी जारी आदि सब खराबियों से भी ( चाहें वे सब इकट्ठी ही क्यों न हों ) कदापि नहीं हो सकती है, यह बात भी प्रकट ही है कि दूसरे सब दुराचरणों से उत्पन्न हुई वा होती हुई खराबियां शीघ्र ही विदित हो जाती हैं। और स्नेही तथा सहवासी गुणी जन उन से मनुष्य को शीघ्र ही बचा लेते हैं परन्तु यह गुप्त दुराचरण तो अति प्रच्छन्न रीति से अपनी पूरी मार देकर तथा अनेक खराबियों को उत्पन्न कर प्रकट होता है, ( इस पर भी आश्चर्य तो यह है कि प्रकट होने पर भी अनुभवी वैद्य वा erter ही इसको पहिचान सकते हैं ) और पीछे इस पापाचरण से उत्पन्न हुई खराबी और हानियों से बचने का समय नहीं रहता है अर्थात् व्याधि असाध्य हो जाती है। अपने हाथ से ब्रह्मचर्य के भङ्ग करने को एक अति खराब और महा दुःखदायक व्याधि समझना चाहिये, इस व्याधि के लक्षण इस रोग से युक्त पुरुष में इस प्रकार पाये जाते हैं - शरीर दुर्बल हो जाता है, स्वभाव चिड़नेवाला तथा चेहरा फीका और चिन्तायुक्त रहता हैं, मुखाकृति विगड़ी हुई दीन तथा खिन्न होती है, आँखें बैठ जाती हैं, मुख लम्बासा प्रतीत होता है, तथा दृष्टि नीचे को रहती है, इस पापका करनेवाला जन इस प्रकार भयभीत और चिन्तातुर दीख पड़ता है कि मानो उसका पापाचरण दूसरेको ज्ञात हो जावेगा, उस का स्वभाव डरपोक बन जाता है और उस की छाती ( कलेजा वा दिल ) बहुत ही असाहसी ( नाहिम्मत ) होजाती है. यहां तक कि वह एक साधारण कारणसे भी भड़क उठता है, उसे नीद कम आती है और स्वप्न बहुत आते हैं, उसके हाथ पैर बहुधा ठंढे होते हैं ( शरीरकी शक्तिके नष्ट हो जानेका यह एक खास चिह्न है ), यदि इस कुटेव का शीघ्र ही अवरोध ( रुकावट ) कर शरीर के सुधारने का योग्य उपाय न किया जावे तो शरीर का प्रतिदिन क्षय होता जाता है, नसें खिंचने लगती हैं, नर्सों तन जाती हैं और संकुचित हो जाती हैं तथा तान और आँचकी का रोग उत्पन्न हो जाता है, बहुधा इस खराबी से अपस्मार अर्थात् मृगीका असाध्य रोग हो जाता है, हिष्टिरियाका भूतभी उस के शरीर में घुसे विना नहीं रहता है ( अवश्य घुस जाता है), उस के घुस जाने से बेचारा जबान मनुष्य आधे पागल के समान अथवा सर्वथा ही उन्मादी (पागल) बन जाता है. ऊपर कही हुई खराबियों के सिवाय दूसरी भी छोटी २ गुप्त खराबियां होती हैं जिन को रोगी स्वयं ही समझ सकता है तथा प्रायः लज्जाके कारण उनको वह दूसरोंसे नहीं कह सकता है और यदि कहता भी है तो उनके मूल कारणको गुप्त ही रखता है और विशेष कर माता पिता आदि बड़े जनों को तो इन सब खराबियों से अनभिज्ञ ही रखता है, इन गुप्त खराबियों का कुछ
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