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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
६-पारा देने से यद्यपि मुंह आता है ( मुखपाक हो जाता है ) तथापि उस में कोई हानि नहीं है, क्योंकि वास्तव में बहुत से रोगों में औषध सेवन से मुखपाक हो ही जाता है, परन्तु उस से हानि नहीं होती है, क्योंकि-स्थितिभेद से वह मुखपाक भी रोग के दूर होने में सहायक रूप होता है, इसी लिये देशी वैद्यजन गर्मी आदि रोगों में जान बूझ कर मुखपाक करनेवाली औषधि देते हैं, तथा उपदंश की शान्ति हो जाने पर मुखपाक को निवृत्त करने (मिटाने ) वाली दवा दे देते हैं, यद्यपि पारे की दवा के देने से अधिक मुखपाक हो जाने से शरीर में प्रायः एक बड़ी खराबी हो जाती है, जिस को प्रायः बहुत से लोग जानते होंगे कि-कभी २ मुखपाक के अधिक हो जाने से बहुत से रोगियों की मृत्यु तक हो जाती है, सिर्फ यही कारण है कि-वर्तमान में इस मुखपाक का लोगों में तिरस्कार ( अनादर ) देखा जाता है परन्तु इस हानि का कारण हम तो यही कह सकते हैं कि बहुत से वैद्यजन औषधि के द्वारा मुखपाक को तो वेग के साथ उत्पन्न कर देते हैं परन्तु उस के हटाने के ( शान्त करने के ) नियम को नहीं जानते हैं, बस ऐसी दशा में मुखपाक से हानि होनी ही चाहिये, क्योंकि मुखपाक की निवृत्ति के न होने से रोगी कुछ खा भी नहीं सकता है, उसे कठिन परहेज़ ही परहेज़ करना पड़ता है, उस के दाँत हिलने लगते हैं तथा दाँत गिर भी जाते हैं, और मुखपाक के कारण बहुत से हाड़ भी सड़ जाते हैं, कभी २ जीभ सूज कर तथा मोटी हो कर बाहर आ जाती है तथा भीतर से श्वास (साँस ) का अवरोध ( रुकावट) हो कर रोगी की मृत्यु हो जाती है, इस लिये अज्ञान वैद्य को औषधि के द्वारा अतिशय (बहुत अधिक ) मुखपाक कभी नहीं उत्पन्न करना चाहिये किन्तु केवल साधारणतया आवश्यकता पड़ने पर मुखपाक को उत्पन्न करना चाहिये. जिस को लोग फूल मुखपाक कहते हैं, फूल मुखपाक प्रायः उसे कहते हैं कि जिस में थोड़ी सी थूक में विशेषता होती है, तात्पर्य यह है कि-दाँतों के मसूड़ों पर जिस का थोड़ा सा ही असर हो बस उतना ही पारा देना चाहिये, इस से विशेष पारा देने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु इस विषय में यह खयाल रखना चाहिये कि पारे को केवल उतना देना चाहिये कि-जितना पारा लोहू पर अपना असर पहुँचा सके।
बहुत से मूर्ख वैद्य तथा दूसरे लोग यह समझते हैं कि-मुख में से जितना थूक अधिक निकले उतना ही विशेष फायदा होता है, क्योंकि थूक के द्वारा गर्मी निकल जाती है, परन्तु उनका ऐसा समझना बहुत ही भूल की बात है, क्योंकि
१-किन्तु प्रकृति और स्थिति के भेद से मुख का आना तो उक्त रोग की निवृत्ति में सहायक माना जाता है, यदि चिकित्सा उसी ढंग पर की जा रही हो तो॥ २-अर्थात् मुखपाक को विधिपूर्वक उत्पन्न करना तथा उस की निवृत्ति करना उन्हें ठीक रीति से मालूम नहीं होता है ।। ३-फूल मुखपाक अर्थात् हलका (नरम वा मृदु) मुखपाक ॥ ४-क्योंकि विशेष पारे का देना परिणाम में भी हानिकारक (नुक्सान करनेवाला ) होता है ।
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