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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
४-ऊपर कहे हुए दोनों नुसखों में से चाहे जिस को काम में लाना चाहिये परन्तु यह स्मरण रहे कि-पहिले त्रिफले के तथा नींब के पत्तों के जल से चाँदी को धो कर फिर उस पर दवा को लगाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से जल्दी आराम होता है। __ गर्मी द्वितीयोपदंश (सीफीलीस) का वर्णन ।
कठिन चांदी के दीखने के पीछे बहुत समय के बाद शरीर के कई भागों पर जिस का असर मालूम होता है उस को गर्मी कहते हैं। ___ यद्यपि यह रोग मुख्यतया (खासकर) व्यभिचार से ही होता है परन्तु कभी २ यह किसी दूसरे कारण से भी हो जाता है, जैसे-इसका चेप लग जाने से भी यह रोग हो जाता है, क्योंकि प्रायः देखागया है कि-गर्मीवाले रोगी के शरीरपर किसी भाग के काटने आदि का काम करते हुए किसी २ डाक्टर के भी जखम होगया है और उस के चेप के प्रविष्ट ( दाखिल) हो जाने से उस जखम के स्थान में टांकी पड़गई है और पीछे से उस के शरीर में भी गर्मी फूट निकली है, यह तो बहुत से लोगों ने देखा ही होगा कि-शीतला का टीका लगाते समय उस की गर्मी का चेप एक बालक से दूसरे बालक को लग जाता है, इस से सिद्ध है कि-यदि गर्मीवाला लड़का नीरोग धाय का भी दूध पीवे तो उस धाय को भी गर्मीका रोग हो जाता है तथा गर्मीवाली घाय हो और लड़का नीरोग भी हो तो भी उस धायका दूध पीने से उस लड़के को भी गर्मीका रोग हो जाता है, तात्पर्य यहहै कि-इस रीति से इस गर्मी देवी की प्रसादी एक दूसरे के द्वारा बँटती है। ___ गर्मी का रोग प्रायः बारसा में जाता है, इस तरह-व्यभिचार, रोगी के रुधिर के रस का चेप और बारसा से यह रोग होता है। __ यद्यपि यह बात तो निर्विवाद है कि कठिन चाँदी के होने के पीछे शरीर की गर्मी प्रकट होती है परन्तु कई एक डाक्टरों के देखने में यह भी आता है कि टांकी के नरम हो जाने तक अर्थात् टांकी के होने के पीछे उस के मिटने तक उस के आस पास और तलभाग में कुछ भी कठिनता न मालूम देने पर भी उस नरम टांकी के होने के पीछे कभी २ शरीर पर गर्मी प्रकट होने लगती है। __ कठिन चाँदी की यह तासीर है कि जब से वह टांकी उत्पन्न होती है उसी समय से उस का तल भाग तथा कोर (किनारे का भाग) कठिन होती है, इस के समान दूसरा कोई भी घाव नहीं होता है अर्थात् सब ही घाव प्रथम से ही नरम होते हैं, हां यह दूसरी बात है कि-दूसरे घावों को छेड़ने से वे कदाचित् कुछ कठिन हो जावें परन्तु मूल से ही (प्रारंभ से ही) वे कठिन नहीं होते हैं।
१-तात्पर्य यह है कि यह रोग सङ्क्रामक है, इस लिये संसर्ग मात्र से ही एक से दूसरे में जाता है ॥ २-अर्थात् यह रोग गर्भ में भी पहुँच कर बालक की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हो जाता है ॥ ३-तात्पर्य यह है कि उक्त व्यभिचार आदि तीन कारण इस रोग की उत्पत्ति के हैं । ४-निर्विवाद अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा अनुभव से सिद्ध ॥
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