________________
चतुर्थ अध्याय ।
४९१
इन्हीं ऊपर कही हुई अग्नियों का आश्रय लेकर वैद्यक शास्त्र में अजीर्ण के जितने भेद कहे हैं उन सब का अब वर्णन किया जाता है:
१-आमाजीर्ण-यह अजीर्ण कफ से उत्पन्न होता है तथा इस में अंग में भारीपन, ओकारी, आंख के पोपचों पर थेथर और खट्टी डकार का आना, इत्यादि लक्षण होते हैं।
२-विदग्धाजीर्ण-यह अजीर्ण पित्त से उत्पन्न होता है तथा इस में भ्रम का होना, प्यास, मूर्छा, सन्ताप, दाह तथा खट्टी डकार और पसीने का आना, इत्यादि चिह्न होते हैं।
३-विष्टब्धाजीर्ण-यह अजीर्ण वादी से होता है तथा इस में शूल, अफरा चूंक, मल तथा अधोवायु (अपानवायु) का अवरोध (रुकना), अंगों का जकड़ना और दर्द का होना, इत्यादि चिह्न होते हैं।
४-रसशेषाजीर्ण-भोजन करने के पीछे पेट में पके हुए अन्न का साररूप रस (पतला भाग) जब नहीं पकने पाता है अर्थात् उस के पकने के पहिले ही जब भोजन कर लिया जाता है तब अजीर्ण उत्पन्न होता है, उस को रसशेषाजीर्ण कहते हैं, इस अजीर्ण में हृदय के शुद्ध न होने से तथा शरीर में रस की वृद्धि होने से अन्नपर अरुचि होती है।
अजीर्णजन्य दूसरे उपद्व-जब अजीर्ण का वेग बहुत बढ़ जाता है तब उस अजीर्ण के कारण विचिका (हैज़ा), अलसक तथा विलम्बिका नामक रोग हो जाता है, इन का वर्णन संक्षेप से करते हैं:
विषूचिका-इस रोग में अतीसार (दस्तों का लगना), मूर्छा (बेहोशी), वमन (उलटी,) भ्रम (चक्कर का आना), दाह (जलन), शूल (पीड़ा), हृदय में पीड़ा, प्यास, हाथ और पैरों में बैंचातान (बाँइटा), अतिजृम्भा (जभा इयों का अधिक भाना), देह का विवर्ण (शरीर के रंग का बदल जाना), विकलता ( बेचैनी) और कम्प ( काँपना), ये लक्षण होते हैं।
१-आमाजीर्ण अर्थात् आम के कारण अजीर्ण ॥ २-ओकारी अर्थात् वमन होने की सी इच्छा ॥ ३-आँख के पोपचों पर थेथर अर्थात् आँख के पलकों पर सूजन ॥ ४-यह अजीर्ण कफ की अधिकता से होता है ॥ ५-भ्रम अर्थात् चक्कर ॥ ६-इस अजीर्ण में पित्त के बेग से धुएँ सहित खट्टी डकार आती है ॥ ७-चूंक अर्थात् शूलमेदादि वातसम्बन्धी पीड़ा । ८-(प्रश्न) आमाजीर्ण में और रसशेषाजीर्ण में क्या भेद है, क्योंकि आमाजीर्ण आम (कच्चे रस के सहित होता है और रसशेषाजीर्ण भी रस के शेष रहनेपर होता है ? (उत्तर) देखो! आमाजीर्ण में तो मधुर हुआ कच्चा ही अन्न रहता है, क्योंकि-मधुर हुए कच्चे अन्न की आम संज्ञा है और रसशेषाजीर्ण में भोजन किये हुए पके पदार्थ का रस पेट में शेष रहता है और वह रस जबतक जठराग्नि से नहीं पकता है तबतक उस की रसशेषाजीर्ण संशा है, बस इन दोनों में यही भेद है ॥ ९-स्मरण रखना चाहिये कि- विषूचिका, अलसक और विलम्बिका, ये तीनों उपद्रव प्रत्येक अजीर्ण से होते हैं ( अर्थात् आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण और विष्टब्धाजीर्ण, इन वीनों से यथाक्रम उक्त उपद्रव होते हों यह बात नहीं है)।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com