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जैनसम्प्रदायशिक्षा। सब से प्रथम इस रोग में ठंढ से कम्पन, ज्वर का वेग, मन्दाग्नि और प्यास, ये लक्षण होते हैं, रोगी का मूत्र लाल उतरता है, नाड़ी जल्दी चलती है तथा कमी २ रोगी को वमन (उलटी) और भ्रम भी हो जाता है जिस से रोगी बकने लगता है, तोफान भी करता है, इन चिह्नों के होने के बाद दूसरे वा तीसरे दिन शरीर के किसी भाग में रक्तवायु दीखने लगता है तथा दाह और लाल शोथ ( सूजन ) भी हो जाती है।
आगन्तुक रक्तवायु कुलथी के दाने के समान होकर फफोलों से शुरू होता है तथा उस में काला खून, शोथ, ज्वर और दाह बहुत होता है, जब यह रोग ऊपर की चमड़ी में होता है तब तो ऊपरी चिकित्सा से ही थोड़े दिनों मैं शान्त हो जाता है, परन्तु जब उस का विष गहरा (चमड़ी के भीतर) चला जाता है तब यह रोग बड़ा भयंकर होता है अर्थात् वह पकता है, फफोला होकर फूटता है, शोथ बहुत होता है, पीड़ा बेहद्द होती है, रोगी की शक्ति कम हो जाती है, एक स्थान में अथवा अनेक स्थानों में मुंह करके (छेद करके) फूटता है तथा उस में से मांस के टुकड़े निकला करते हैं, भीतर का मांस सड़ने लगता है, इस प्रकार यह अन्त में हाड़ोंतक पहुँच जाता है उस समय में रोगी का बचना अतिकठिन हो जाता है और खासकर जब यह रोग गले में होता है तब अत्यन्त भयंकर होता है।
चिकित्सा-१-इस रोग में शरीर में दाह न करनेवाला जुलाब देना चाहिये तथा वमन (उलटी), लेप और सींचने की चिकित्सा करनी चाहिये, तथा यदि आवश्यकता समझी जावे तो जोंक लगानी चाहिये।
२-रतवेलिया, काला हंसराज, हेमकन्द, कबाबचीनी, सोना गेरू, वाला और चन्दन आदि शीतल पदार्थों का लेप करने से रक्तवायु का दाह और शोथ शान्त हो जाता है।
३-चन्दन अथवा पद्मकाष्ठ, वाला तथा मौलेठी, इन औषधों को पीस कर अथवा उकाल कर ठंडा कर के उस पानी की धार देने से शान्ति होती है तथा फूटने के बाद भी इस जल से धोने से लाभ होता है।
४-चिरायता, अडूसा, कुटकी, पटोल, त्रिफला, रक्तचन्दन तथा नीम की भीतरी छाल, इन का क्वाथ बना कर पिलाना चाहिये, इस के पिलाने से ज्वर, वमन, दाह, शोथ, खुजली और विस्फोटक आदि सब उपद्रव मिट जाते हैं।
५-रक्तवायु की चिकित्सा किसी अच्छे कुशल (चतुर) वैद्य वा डाक्टर से करानी चाहिये।
१-अर्थात् ठंढ़ से कम्पन आदि इस रोग के पूर्वरूप समझे जाते हैं ।। २-ऐसे समय में इस की चिकित्सा अच्छे कुशल वैद्य वा डाक्टर से करानी चाहिये ॥ ३-क्योंकि दाह करनेबाले जुलाब के देने से इस रोग की वृद्धि की आशंका होती है ॥ ४-किन्हीं आचार्यों की यह मी सम्मति है कि-जिन विसर्पो में दाह न होता हो उन में जुलाब देना चाहिये किन्तु शेष ( जिन में दाह होता हो उन ) विसर्पो में जुलाब नहीं देना चाहिये ।।
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