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द्वितीय अध्याय ।
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मूर्ख शिष्य को सिखला कर, दुष्ट स्त्री को रखकर और शत्रु का विश्वास कर पण्डित पुरुष भी दुःखी होता है ॥ ५२ ॥
दुष्ट भारजा मित्र शठ, उत्तरदायक भृत्य ॥
सर्पसहित घर वास ये, निश्चय जानो मृत्य ॥५३॥ दुष्ट स्त्री, धृतं मित्र, उत्तर देनेवाला नौकर और जिस मकान में सर्प रहता हो वहां का निवास, ये सब बातें मृत्युस्वरूप हैं, अर्थात् इन बातों से कभी न कभी मनुष्य का मृत्यु ही होना सम्भव है ॥ ५३ ॥
विपति हेत रखिये धनहिँ, धन तें रखिये नारि ॥
धन अरु दारा दुहुँन तें, आतम नित्य विचारि ॥५४॥ वितिसमय के लिये धन की रक्षा करनी चाहिये, धन से स्त्री की रक्षा करनी चाहिरं, और धन तथा स्त्री इन दोनों से नित्य अपनी रक्षा करनी चाहिये ॥५४ ॥
एकहिँ तजि कुल राखिये, कुल तजि रखिये ग्राम ॥
ग्राम त्यागि रख देश कों, आतमहित वसु धाम ॥ ५५ ॥ एक को छोड़कर कुल की रक्षा करनी चाहिये अर्थात् एक मनुष्य के लिये तमाम कुल को नहीं छोड़ना चाहिये किन्तु एक मनुष्य को ही छोड़ना चाहिये, कुल को छोड़कर ग्राम की रक्षा करनी चाहिये अर्थात् कुल के लिये तमाम ग्राम को नहीं छोड़ना चाहिये किन्तु ग्राम की रक्षा के लिये कुल को छोड़ देना चाहिये, ग्राम का त्याग कर देश की रक्षा करनी चाहिये अर्थात् देश की रक्षा के लिये ग्राम को छोड़ देना चाहिये और अपनी रक्षा के लिये तमाम पृथिवी को छोड़ देना चाहिये ॥ ५५॥
नहीं मान जिस देश में, वृत्ति न बान्धव होय ॥
नहिं विद्या प्रापति तहाँ, वसिय न सजन कोय ॥ ५६ ।। जिस देश में न तो मान हो, न जीविका हो, न भाई बन्धु हों और न विद्या की भी प्राप्ति हो, उस देश में सजनों को कभी नहीं रहना चाहिये ॥५६॥
पण्डित राजा अरु नदी, वैद्यराज धनवान ॥
पांच नहीं जिस देश में, वसिये नाहिँ सुजान ॥ ५७ ॥ सय विद्याओं का जाननेवाला पण्डित, राजा, नदी (कुआ आदि जल का स्थान ), रोगों को मिटानेवाला उत्तम वैद्य और धनवान्, ये पांच जिस देश में न हों उन में बुद्धिमान् पुरुष को नहीं रहना चाहिये ॥ ५७ ॥
१- तात्पर्य यह है कि-धन के नाश का कुछ भी विचार न कर विपत्ति से पार होना चाहिये तथा रू की रक्षा करना चाहिये तथा धन और स्त्री इन दोनों के भी नाश का कुछ विचार न करके अपनी रक्षा करनी चाहिये अर्थात् इन दोनों का यदि नाश होकर भी अपनी रक्षा होती हो तो भी अपनी रक्षा करनी चाहिये ।
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