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चतुर्थ अध्याय ।
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अथवा-मिश्री डाल कर पित्तपापड़े का हिम पीना चाहिये। अथवा-आँवला, दाख और मिश्री का पानी, इन का सेवन करना चाहिये।
अथवा-दाख, चन्दन, वाला, मोथ, मौलेठी और धनियां, इन सब चीज़ों को अथवा इन में से जो चीज़ मिले उस को भिगा कर तथा पीस कर उस का पानी पीना चाहिये।
अथवा-मोर के जले हुए चार चंदवे, भुनी हुई पीपल, भुना हुआ जीरा, जली हुई नारियल की जोटी, जलाया हुआ रेशम का कूचा वा कपड़ा, पोदीना
और कमलगट्टे (पब्बोड़ी) के अन्दर की हरियाई (गिरी), इन सब को पीस कर शहद में, अनार के शर्बत में, अथवा मिश्री की चासनी में वमन (उलटी) के होते ही चाटना चाहिये तथा फिर भी घण्टे घण्टे भर के बाद चाटना चाहिये, इस से त्रिदोष की भी वमन तथा छर्दी बन्द हो जाती है।
अथवा-भुजा की दोनों नसों को खूब खींच कर बांधना चाहिये।
अथवा-नारियल की जोटी, हलदी, काली मिर्च, उड़द और मोर के चन्दे का धूम्रपान करना चाहिये।
अथवा-नीम की भीतरी छाल का पानी मिश्री डाल कर पीना चाहिये।
ज्वर में दाह-इस में यदि भीतर दाह हो तो प्रायः वह चिकित्सा हितकारक है जो कि वमन के लिये लाभदायक है, परन्तु यदि बाहर दाह होता हो तो कच्चे चाँवलों के धोवन में घिसा हुआ चन्दन एक वाल तथा घिसी हुई सोंठ एक रत्ती लेनी चाहिये, इस में थोड़ा सा शहद मिला कर चाटना चाहिये तथा पानी में मिलाकर पीना चाहिये।
अथवा-चन्दन, सोंठ, वाला और निमक, इन का लेप करना चाहिये । अथवा-मगज़ पर मुलतानी मिट्टी का थर भरना चाहिये।
यदि पगथैली तथा हथेलियों में दाह होता हो तो उत्तम साफ पेंदेवाली फूल (कांसे) की कटोरी लेकर धीरे २ फेरते रहना चाहिये, ऐसा करने से दाह अवश्य शान्त हो जावेगा।
___ ज्वर में पथ्य अर्थात् हितकारी कर्त्तव्य । १-परिश्रम के काम, लंघन (उपवास) और वायु से चढ़े हुए ज्वर में दूध के साथ भात का खाना पथ्य ( हितकारक ) है, कफ के ज्वर में मूंग की दाल
१-ज्वर में दाह होने की दशा में प्रायः वे भी चिकित्सायें हितकारक हैं कि जो दाह के प्रकरण में ग्रन्थान्तरों में लिखी हैं, परन्तु इस में इस बात का अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि जो चिकित्सा ज्वर के विरुद्ध अर्थात् ज्वर को बढ़ानेवाली हो उसे कभी नहीं करना चाहिये। २-पगथली अर्थात् पैरों के तलवे ॥ ३-फूल अर्थात् कांसे की कटोरी के फेरने से एक प्रकार की बिजली की शक्ति के द्वारा आकर्षण हो कर दाह निकल जाता हैं ॥ ४-ज्वर में पथ्य अर्थात् हितकारी कर्तव्य का अवश्य बर्ताव करना चाहिये, क्योंकि-पथ्य का बर्ताव न करने से दी हुई
ओषधि से भी कुछ लाभ नहीं होता है तथा पथ्य का बर्ताव करने से ओषधि के देने की भी विशेष आवश्यकता नहीं रहती है ।
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