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________________ ४०२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। की शंका होती है-हृदय का दर्द, फेफसे का रोग, मगज़ का रोग, सन्निपातज्वर, सुवा रोग और शरीर का अत्यन्त सड़ना, इस नाड़ी से उक्त रोगों के सिवाय अन्य भी कई प्रकार के अत्यन्त भयंकर स्थितिवाले रोगों की सम्भावना रहती है। ७-अन्तरिया नाड़ी-जिस नाड़ी के दो तीन ठनके होकर बीच में एकाध ठनके जितनी नागा पड़े अर्थात् ठबका ही न लगे, फिर एकदम दो तीन ठबके होकर पूर्ववत् (पहिले की तरह ) नाड़ी बंद पड़ जाये और फिर बारंबार यही व्यवस्था होती रहे वह अन्तरिया नाड़ी कहलाती है, जब हृदय की बीमारी में खून ठीक रीति से नहीं फिरता है तब बड़ी धोरी नस चौड़ी हो जाती है और मगज़ का कोई भाग विगड़ जाता है तब ऐसी नाड़ी चलती है। डाक्टर लोग प्रायः नाड़ी की परीक्षा में तीन बातों को ध्यान में रखते हैं वे ये हैं १-नाड़ी की चाल जल्दी है या धीमी है। २-नाड़ी का कद बड़ा है या छोटा है । ३-नाड़ी सख्त है या नरम है। ___ खूनवाले जोरावर आदमी के बुखार में, मगज के शोथ में कलेजे के रोग में और गठियावायु आदि रोगों में जल्दी, बहुत बड़ी और सख्त नाड़ी देखने में आती है, ऐसी नाड़ी यदि बहुत देरतक चलती रहे तो जान को जोखम आ जाती है, जब बुखार के रोग में ऐसी नाड़ी बहुत दिनोंतक चलती है तब रोगी के बचने की आशा थोड़ी रहती है, हां यदि नाड़ी की चाल धीरे २ कम पड़ती जावे तो रोगी के सुधरने की आशा रहती है, प्रायः यह देखा गया है कि-फरत खोलने से, जोंक लगाने से, अथवा अपने आप ही खून का रास्ता होकर जब बढ़ा हुआ खून निकल जाता है तो नाड़ी सुधर जाती है, निर्बल आदमी को जब बुखार आता है अथवा शरीरपर किसी जगह सूजन आ जाती है तब उतावली छोटी और नरम नाड़ी चलती है, जब खून कम होता है, आंतों में शोथ होता है तथा पेट के पड़दे पर शोथ होता है तब जल्दी छोटी और सख्त नाड़ी चलती है, यह नाड़ी यद्यपि छोटी तथा महीन होती है परन्तु बहुत ही सख्त होती है, यहांतक कि अंगुलि को तार के समान महीन और करड़ी लगती है, ऐसी नाड़ी भी खून का जोर बतलाती है। नाडी के विषय में लोगों का विचार केवल नाड़ी के देखने से सब रोगों की सम्पूर्ण परीक्षा हो सकती है ऐसा जो लोगों के मनों में हद्द से ज्यादा विश्वास जम गया है उस से वे लोग प्रायः ठगाये जाते हैं, क्योंकि नाड़ी के विषय में झंठा फांका मारनेवाले धूर्त वैद्य और हकीम अज्ञानी लोगों को अपने बचनजाल मे फँसाकर उन्हें मन माना ठगते हैं, इन धूोंने यहांतक लीला फैलाई है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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