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चतुर्थ अध्याय ।
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अंगुलियां नाड़ी परीक्षा में लगानी चाहियें और उन से क्रम से वात पित्त और कफ को पहिचानना चाहिये ।
नाडीपरीक्षा का निषेध - जिन २ समयों में और जिन २ पुरुषों की नाड़ी नहीं देखनी चाहिये, उन के स्मरणार्थ इन दोहों को कण्ठ रखना चाहिये
तुरत नहाया जो पुरुष, अथवा सोया होय ॥ क्षुधा तृषा जिस को लगी, वा तपसी जो कोय ॥ १ ॥ व्यायामी अरु थकित तन, इन में जो कोउ आहि ॥ नाड़ी देखे वैद्य जन, समुझि परै नहिँ वाहि ॥ २ ॥ अर्थात् जो पुरुष शीघ्र ही स्नान कर चुका हो, शीघ्र ही सोकर उठा हो, जिस को भूख वा प्यास लगी हो, जो तपश्चर्या में लगा हो, जो शीघ्र ही व्यायाम ( कसरत ) कर चुका हो और जिस का शरीर परिश्रम के द्वारा थक गया हो, इतने पुरुषों की नाड़ी उक्त समयों में नहीं देखनी चाहिये, यदि वैद्य वा डाक्टर इनमें से किसी पुरुष की नाड़ी देखेगा तो उस को उक्त समयों में नाड़ी का ज्ञान यथार्थ कभी नहीं होगा ।
स्मरण रखना चाहिये कि नाड़ीपरीक्षा के विषय में चरक, सुश्रुत तथा विद्वान् ब्राह्मणों के बनाये हुए प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों में कुछ भी नहीं लिखा है, इसी प्रकार प्राचीन जैन गुप्त (वैश्य ) पण्डित वाग्भट्ट ने भी नाड़ीपरीक्षा के विषय में अष्टाङ्ग - हृदय (वाग्भट्ट ) में कुछ भी नहीं लिखा है, तात्पर्य यही है कि प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों में नाड़ीपरीक्षा नहीं है किन्तु पिछले बुद्धिमान् वैद्योंने यह युक्ति निकाली है, जैसा कि हम प्रथम लिख चुके हैं, हां वेशक श्रीमज्जैनाचार्य हर्षकी - र्तिसूरिकृत योगचिन्तामणि आदि कई एक प्रामाणिक वैद्यक ग्रन्थों में नाड़ीपरीक्षा का वर्णन है, उस को हम यहां भाषा छन्द में प्रकाशित करते हैं-
१- तात्पर्य यह है कि तर्जनी अंगुली के नीचे जो नाड़ी का ठपका हो उस से बात की गति को पहिचाने, मध्यमा अंगुलि के नीचे जो नाड़ी का ठपका हो उस से पित्त की गति को पहिचाने तथा अनामिका अंगुलि के नीचे जो नाड़ी का ठपका हो उस से कफ की गति को पहिचाने, देशी वैद्यक शास्त्रों में नाड़ीपरीक्षा का यही क्रम ( जो ऊपर कहा गया है ) लिखा है, क्योंकि उक्त शास्त्रों का यही सिद्धान्त है कि -अंगूठे के मूल में जो तर्जनी आदि तीन अंगुलियां बराबर लगाई जाती हैं उनमें से प्रथम (तर्जनी) अंगुली के नीचे वायु की नाड़ी है, दूसरी ( मध्यमा ) अंगुली के नीचे पित्त नाड़ी है तथा तीसरी ( अनामिका) अंगुलि के नीचे कफ की नाड़ी है, जिस प्रकार उक्त तीनों अंगुलियों के द्वारा उक्त तीनों दोषों की गति का बोध होता है उसी प्रकार से उक्त अंगुलियों के ही द्वारा मिश्रित दोषों की गति का भी बोध हो सकता हैं, जैसे - वातपित्त की ना तर्जनी और मध्यमा के नीचे चलती है, वातकफ की नाड़ी अनामिका और तर्जनी के नीचे चलती है, पित्तकफ की नाड़ी मध्यमा और अनामिका के नीचे चलती है, तथा सन्निपात की नाड़ी तीनों अंगुलियों के नीचे चलती है ॥
३४ जै० सं०
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