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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
६८- कषायवक्रता -- इस रोग में वादी के कोप से मुँह में कषैले रस का स्वाद रहता है ।
६९ - आध्मान - इस रोग में वायु के कोप से नाभि के नीचे अफरा हो 'जाता है।
७० - प्रत्याध्मान - इस रोग में हृदयके नीचे और नाभि के ऊपर अफरा हो जाता है ।
७१ - शीतता - इस रोग में वायु से शरीर ठंढा पड़ जाता है । ७२ - रोमहर्ष- - इस रोग में वादी के कोप से शरीर के रोम खड़े हो जाते हैं । ७३ - भीरुत्व - इस रोग में वायु के कोप से भय लगता रहता है ।
७४ - तोद - इस रोग में शरीर में सुई के चुभाने के समान व्यथा प्रतीत होती है ।
७५ - कण्डू - इस रोग में वादी से शरीर में खाज चला करती है ।
७६ - रसाज्ञता - इस रोग में रसों का स्वाद नहीं मालूम होता है ।
७७ - शब्दाज्ञता - इस रोग में वादी के कोप से कानों से शब्द सुनाई नहीं देता है ।
७८
- प्रसुति - इस रोग में वायु के कोप से स्पर्श का ज्ञान नहीं होता है । ७९ - गन्धाज्ञता - इस रोग में वायु के कोप से गंध का ज्ञान नहीं होता है । ८० - दृष्टिक्षय - इस रोग में दृष्टि में वायु अपना प्रवेश कर देखने की शक्ति को कम कर देती है ।
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सूचना - वायु के कोप से शरीर में ऊपर कहे हुए रोगों में से एक अथवा अनेक रोगों के लक्षण स्पष्ट दिखलाई देते हैं, उन ( लक्षणों) से निश्चय हो सकता है कि यह रोग वादी का है, खून और वादी का भी निकट सम्बंध है इसलिये वादी खून में मिल कर बहुत से खून के विकारों को पैदा करती है, अतः ऐसे रोगों में खून की शुद्धि और वायु की शान्ति करनेवाला इलाज करना चाहिये । पित्त के कोप के कारण ।
बहुत गर्म, तीखे, खट्टे, रूखे और दाहकारी पदार्थों के खाने पीने से, मद्य आदि नशों के व्यसन से, बहुत उपवास करने से, क्रोध से, अति मैथुन से, बहुत शोक से, बहुत धूप और अग्नि तेज आदि के सेवन से, इत्यादि आहार विहार से पित्त का कोप होता है, जिस से पित्तसम्बन्धी ४० रोग होते हैं, जिन के नाम ये हैं:
१ - वायु से उत्पन्न होनेवाले इन ८० प्रकार के रोगों का यहांपर कथन कर दिया है परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि अनेक आचार्यों ने कई रोगों के नामान्तर ( दूसरे नाम ) लिखे हैं तथा उन के लक्षण भी और ही लिखे हैं, परन्तु संख्या में कोई भेद नहीं है अर्थात् रोगसंख्या सव ही के मत में ८० ही है, यही विषय पित्त और कफ से उत्पन्न होनेवाले रोगों के विषय में भी समझना चाहिये ॥
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