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चतुर्थ अध्याय ।
जबानी (युवावस्था) में रोगों को रोकनेवाली सातावेदनी शक्ति की प्रबलता के होने से शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले कारणों का जोर थोड़ा ही रहता है।
तीसरी वृद्धावस्था में शरीर फिर निर्बल पड़ जाता है और यह निर्बलता वृद्ध मनुष्य के शरीर को बार २ रोग के योग्य बनाती है।
६-जाति-विचार कर देखा जावे तो पुरुषजाति की अपेक्षा स्त्रीजाति का शरीर रोग के असर के योग्य अधिक होता है, क्योंकि स्त्रीजाति में कुछ न कुछ अज्ञान, विचार से हीनता और हर अवश्य होता है, इस लिये वह आहार विहार में हानि लाभ का कुछ भी विचार नहीं रखती है, दूसरे-उस के शरीर के बन्धेज नाजुक होने से गर्भस्थान में वार २ परिवर्धन ( उथलपुथल) हुआ करता है, इसलिये स्त्रीका निर्बल शरीर रोग के योग्य होता है, वर्तमान में स्त्रीजाति की उत्पनि पुरुषजाति से तिगुनी दीखती है तथा स्त्रीजाति पुरुषजाति की अपेक्षा अधिक मरती है, यही कारण है कि-एक एक पुरुष तीन २ चार २ तक विवाह किया करते हैं।
७-जीविका वा वृत्ति-बहुत सी जीविकायें वा वृत्तियें (रोजगार ) भी ऐसी हैं जो कि शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले कारण बन जाती हैं, जैसे देखो ! सब दिन बैठ कर काम करनेवालों, आंख को बहुत परिश्रम देनेवालों, कलेजा और फेफसा दबा रहे इस प्रकार बैठकर काम करनेवालों, रंग का काम करनेवालों, पारा तथा फासफरस की चीजों के बनानेवालों, पत्थर को घड़नेवालों. धातुओं का काम करनेवालों (लुहार, कसेरे, उँठेरे और सुनार आदिकों) कोयले की खान को खोदनेवाले मजूरों, कपड़े की मिलमें काम करनेवाले मजूरों, बहुत बोलनेवालों, बहुत फूंकनेवालों और रसोई का काम प्रतिदिन करनेवालों का तथा इसी प्रकार के अन्य धन्धे (रोज़गार) करनेवालों का शरीर रोग के योग्य हो जाता है तथा इन की आयु भी परिमाण से कम हो जाती है।
८ प्रकृति-प्रकृति (स्वभाव वा मिजाज़) भी शरीर को रोग के योग्य वनानेवाला कारण है, देखो ! किसी का मिजाज़ ठंढा, किसी का गर्म, किसी का वातल और किसी का मिश्र होता है, मिश्रित प्रकृतिवालों में से कोई २ पुरुष दो प्रकृति की प्रधानतावाले तथा कोई २ तीनों प्रकृतियों की प्रधानतावाले भी होते हैं। __ गम मिजाजवाला मनुष्य प्रायः शीघ्र ही क्रोध तथा बुखार के आधीन हो जाता है, ठंढे मिजाज़वाला मनुष्य प्रायः शीघ्र ही शर्दी कफ और दम आदि रोगों के आधीन हो जाता है, एवं वायुप्रकृतिवाला मनुष्य प्रायः शीघ्र ही वादी के रोगों के आधीन हो जाता है। ___ यापि मूल में तो यह प्रकृतिरूप दोष होता है परन्तु पीछे जब उस प्रकृति को विगाड़नेवाले आहार विहार से सहायता मिलती है तब उसी के अनुसार रोगोत्पत्ति हो जाती है, इसलिये प्रकृति को भी शरीर को रोग के योग्य बनानेवाले कारणों में गिनते हैं ॥
३१ जै० सं०
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