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चतुर्थ अध्याय ।
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रखना) अत्यन्त ही कठिन वरनः दुस्तर हो जाता है, इस लिये उचित है कि मन को पहिले ही से विषयरस की तरफ न झुकने देवें तथा यौवनरूपी मदवाले के हाथ में विषयरस रूपी हथियार देके अपने हितकारी सद्गुणों का नाश न करावें, यदि मन को पहिले ही से इस से न रोका जावेगा तो फिर उस का रुकना अति कठिण हो जावेगा।
स के सिवाय विवाह के विषय में एक बात और भी अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि दोनों ओर से ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये कि जिस से आपस में प्रेम न रहे जैसे कि-बहुधा लोग बरातों में दाने घास और परोसे आदि तनिक २ सी बातों में ऐसे झगड़े डाल देते हैं कि जिन से समधियों के मतों में अन्तर पड़ जाता है जिस के कारण लाख देने पर भी आनन्द नहीं आता है, यह बात बिलकुल सच है कि-प्रेम के विना सर्वस्व मिलने पर भी प्रसन्नता नहीं होती है अतः प्रीतिपूर्वक प्रत्येक कार्य को करना चाहिये कि जिस से दोनों ही तरफ प्रशंसा हो और खर्च भी व्यर्थ न हो, भला सोचने की बात है कि-दो सम्बन्धियों में से जब एक की बुराई हुई तो क्या वह अपना सम्बन्धी नहीं है ? क्या उस की बदनामी से अपनी बदनामी नहीं हुई ? सच पूछो तो जो लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं उन सम्बन्धियों पर धता भेजना उचित है, क्योंकि विवाह का समय आपस में आनन्द तथा प्रेमरस के बरसाने और मृदु मधुर वार्तालाप करने का है, किन्तु एक दूसरे के विपरीत लीला रच कर युद्ध का सामान इकट्ठा कर लेने का यह समय नहीं है, इस लिये जो लोग ऐसा करते हैं वह उन की सर्वथा मूर्खता की बात है, अत. दोनों को एक दूसरे की भलाई का तन मन से विचार कर कार्यों को कर के यश का लेना उचित है, दोनों सम्बंधियों को यह भी उचित है कि-जो मनुष्य मन से दोनों की धूर उड़ाना चाहते हैं तथा बाहर से बहुत सी ललो पत्तो करते हैं उन की वार्ता पर कदापि ध्यान न दें, क्योंकि इस संसार में दूसरे को खुशामद आदि के द्वारा निरन्तर प्रसन्न करने के लिये प्रिय बोलनेवाले प्रशंसक लोग बहुत हैं परन्तु जो वचन सुनने में चाहे अप्रिय ही हो परन्तु वास्तव में कल्याण करनेवाला हो उस के बोलनेवाले तथा सुननेवाले पुरुष दुर्लभ हैं, देखो! बहुधा गुप्त शत्रु तथा दुष्ट लोग सामने तो हां में हां मिलाते हैं और पीछे बुराई निकालकर दर्शाते हैं परन्तु सत्पुरुष तो मुँह पर प्रत्येक वस्तु के गुण और दोपों का वर्णन करते हैं और परोक्ष में प्रशंसा ही करते हैं, इन बातों को विचार कर ोनों समधियों को योग्य है कि-दोनों समक्ष में मिलकर प्रत्येक बात का स्वयं निर्णय कर जो दोनों के लिये लाभदायक हो उसी का अंगीकार करें जिस से दोनों आनन्द में रहें, क्योंकि यही विवाह और सम्बन्ध का मुख्य फल है ।
विवाह की रीति जो इस समय विगड़ रही है वह प्रसङ्गवश पाठकों को संक्षेप से बतला दी गई, यदि इस का पूरे तौर से वर्णन कर इस के दोष और गुण बतलाये जावें तो इसी विषय का एक ग्रन्थ बन जावे परन्तु बुद्धिमान् पुरुष सङ्केतमात्र से ही तत्त्व को समझा लेते हैं अतः अतिसंक्षेप से ही इस विषय का वर्णन किया है, आशा है कि पाठकगण इतने ही कथन से अपने हिताहित का विचार कर अशुभ और अहित कुमार्ग का त्याग कर शुभ और हितकारक सन्मार्ग का अवलम्बन करेंगे।
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