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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
कुमार्गी मित्र उत्पन्न हो जाते हैं, नाच ही में हमारे देश के धनाढ्य साहूकार लज्जा को तिलाञ्जलि देते हैं, नाच ही में वेश्याओं को अपनी शिकार के फाँसने तथा नौ जबानों का सत्यानाश मारने का समय (मौका) हाथ लगता है, बाप बेटे भाई और भतीजे आदि सब ही छोटे बड़े एक महफिल में बैठकर लजा का परदा उठा कर अच्छे प्रकार से घृरते तथा अपनी आंखों को गर्म करते हैं वेश्या भी अपने मतलब को सिद्ध करने के लिये महफिलों में ठुमरी, टप्पा, बारह. मासा और गजल आदि इश्क के द्योतक रसीले रागों को गाती हैं, तिस पर भी तुर्रा यह है कि-ऐसे रसीले रागों के साथ में तीक्ष्ण कटाक्ष तथा हाव भाव भी इस प्रकार बताये जाते हैं के जिन से मनुष्य लोट पोट हो जाते हैं तथा खूब सूरत और शंगार किये हुए नौ जवान तो उस की सुरीली आवाज और उन तीक्ष्ण कटाक्ष आदि से ऐसे घायल हो जाते हैं कि फिर न यो सिवाय इश्क वस्ल यार के और कुछ भी नहीं सूझता है देखिये ! किसी महात्मा ने कहा है कि
दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शनात् हरते बलम् ।
मैथुनात् हरते वीर्य, वेश्या प्रत्यक्षराक्षसी ॥१॥ अर्थात् दर्शन से चित्त को, छूने से बल को और मैथुन से वीर्य को हर लेती है, अतः वे या सचमुच राक्षसी ही है ।। १ यद्यपि सब ही जानते हैं कि इस राक्षसी वेश्या ने हजारों घरों को धूल में मिला दिया है तिस पर भी तो बाप और बेटे को साथ में बैठ कर भी कुछ नहीं सूाता है, जहां उसकी आँख लगी किचकनाचर हो जाते हैं, प्रतिष्टा तथा जबानी को खाकर बदनामी का तौक गले में पहनते हैं, देखो ! हजारों लोग इश्क के नशे में चूर होकर अपना घर वार बेंचकर दो २ दानों के लिये मारे २ फिरते हैं बहुत से नादान लोग धन कमा २ कर इन की भेंट चढ़ाते हैं और उनके मातापिता दो २ दानों के लिये मारे २ फिरते हैं, सच पूछो तो इस कुकार्य से उन की जो २ कुदशा होती है वह सब अपनी करनी का ही निकृष्ट फल है, क्योंकि वे ही प्रत्येक उत्सव अर्थात् बालकजन्म. नामकरण, मुण्डन, सगाई और विवाह में तथा इन के सिवाय जन्माष्टमी, रासलीला, रामलीला, होली, दिवाली, दशहरा और वसन्तपञ्चमी आदि पर बुलवा २ कर अपने नौ जबानों को उन राक्षसियों की रसभरी आवाज तथा मधुर्ग आँखें दिखलवाते हैं कि जिस से वे बहुधा रण्डीबाज हो जाते हैं, तथा उन को आतशक और मुजाख आदि बीमारियां घेर लेती हैं, जिन की आग में वे खुद भुनते रहते हैं, तथा उन की परसादी अपनी औलाद को भी देकर निराश छोड़ जाते हैं, बहुतसे मूर्ख जन रण्डीयों के नाज नखरे तथा बनाव शंगार आदि पर ऐसे मोहित हो जाते हैं कि घर की विवाहिता स्त्रियों के पास तक नहीं जाते हैं तथा उन (विवाहिता स्त्रियों) पर नाना प्रकार के दोष रखकर मुँह से बोलना भी अच्छा नहीं समझते हैं, वे बेचारी दु:ख के कारण रात दिन रोती रहती हैं, यह भी अनुभव किया गया है कि-बहुधा जो स्त्रियां महफिल का नाच देख लेती हैं उन पर इस का ऐसा बुरा असर पड़ता है कि-जिस से घर के घर उजड़ जाते हैं, क्योंकि जब वे देखती हैं कि सम्पूर्ण महफिल के लोग उस रण्डी की ओर टकटकी लगाये हुए उस के नाज और नखरों को सह रहे हैं, यहांतक कि जब वह थूकने का इरादा करती है तो एक आदमी पीकदान लेकर हाजिर होता है, इसी प्रकार यदि पान खाने की जरूरत हुई तो भी निहायत नाज तथा अदब के साथ उपस्थित किया जाता है, इस के सिवाय वह दुष्टा नीचे से ऊपर तक सोने और चांदी के आभूषणों तथा अतलस, गुलवदन और कमरव्वाब आदि बहुमूल्य वस्त्रों के पेसवाज को एक एक दिन में चार २ दफे नई २ किस्म के बदलती हैं तथा
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