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चतुर्थ अध्याय ।
लया आदि; पक्षी नामवाली न हो, जैसे- कोकिला, मैना, हंसा आदि; सर्प नामवाली न हो, जैसे - सर्पिणी, नागी, व्याली आदि; प्रेष्य ( भृत्य ) नामवाली न हो, जैसे- दासी, किङ्करी आदि, तथा भाषण (भयानक ) नामवाली न हो, जैसे-भीमा, भयंकरी, चण्डिका आदि, क्योंकि ये सब न म निषिद्ध हैं अतः कन्याओं के ऐसे नाम ही नहीं रखने चाहियें ) | प्यारे सुजनो ! विवाह के विषय में शास्त्रानुसार इन बातों का विचार अवश्यमेव करना चाहिये, क्योंकि इन बातों का विचार न करने से जन्मभरतक दुःख भोगना पड़ता है तथा गृहस्थाश्रम दुःखों की खाि हो जाता है, देखो ! उत्तम कुल वृक्षके तुल्य है, उस की सम्पत्ति शाखाओं के सदृश है तथा पुत्र मूलवत है, जैसे मूलके नष्ट होने से वृक्ष कभी कायम नहीं रह सकता है, उसी प्रकार अयोग्य विवाह के द्वारा पुत्रके नष्ट भ्रष्ट होने से कुल का नाश हो जाता है, इसलिये जो पुरुष अपने पुत्र और पुत्रियों को सदा सुखी रखना चाहें वे सुखरूपी तत्त्व का विचार कर शास्त्रनुसार उचित विधि से विवाह करें क्योंकि जो ऐसा करेंगे वे ही लोग कुलरूपी वृक्ष की वृद्धिरूपी फल फूल और पत्तों को देख सकते हैं, बल्कि सत्य पूछो तो सन्तान ही नहीं किन्तु उस का योग्य विवाह कुल रूपी वृक्ष का मूल है, इस लिये जैसे वृक्ष की रक्षा के लिये उसके मूल की रक्षा करनी पड़ती उसी प्रकार कुल की रक्षा के लिये योग्य विवाह की संभाल और रक्षा करनी चाहिये, जैसे जिस वृक्ष का मूल दृढ़ होगा तो वह बड़े २ प्रचण्ड वायु के झपट्टों से भी कभी नहीं गिर सलगा परन्तु यदि मूल ही निर्बल हुआ तो हवा के थोड़े ही झटके से उखड़ कर गिर पड़ेगा, इसी प्रकार जो पुत्र सपूत वा सुलक्षण होगा तथा उसका योग्य विवाह होगा तो धन तथा कुल की प्रतिदिन उन्नति होगी, सर्व प्रकार से बाप दादे का नाम तथा यश फैलेगा और नाना भांति से सुख तथा आनन्द की वृद्धि होगी, क्योंकि गुणवान् और उत्तम आचरणवाले एक ही सुपुत्र से सम्पूर्ण कुल इस प्रकार शोभित और प्रख्यात हो जाता है जैसे चन्दन के एक ही वृक्ष से तमाम ग्न सुगन्धित रहता है, परन्तु यदि पुत्र कुपूत वा कुलक्षण हुआ तो वह अपने तन, मन, वन, मन और कीत्ति आदि को धूल में मिला देगा, इस लिये विवाह में धन आदि की अपेक्षा लड़के के गुण कर्म और शील आदि का मिलाना अत्यंत उचित है, क्योंकि धन तो इस संसार में बादल छाया के समान है, प्रतिष्ठा पतङ्ग के रंग के सदृश और कुल केवल नाम के लिये है, इस कारण मूलपर सदा ध्यान करने से परम सुख मिल सकता है, अन्यथा कदापि नहीं, देखो! किसी ने सत्य कहा है कि - " एक हि साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय ॥ जो तू सी मूलक, फूले फले अवाय" ॥ १ ॥ अतः वर और कन्या के ऊपर लिखे हुए गुणों को मिला कर विवाह करना उचित है, जिस से उन दोनों की प्रकृति सदा एक सी रहे, क्योंकि यही सुख का है देखो ! किसी कविने कहा है कि - "प्रकृति मिले मन मिलत है, अन मिल से न मिलाय ॥ दूध से जमत है, कांजी से फट जाय ॥ १ ॥ ऊपर लिखी हुई बानों के मिलाने के अतिरिक्त यह भी देखना उचित है कि जो लड़का ज्वारी, मद्यप ( शरावी), वेश्यागामी ( रण्डीबाज ) और चोर अदि न हो किन्तु पढ़ा लिखा, श्रेष्ठ कार्यकर्त्ता और धर्मात्मा हो उसी से कन्या का विवाह करना चाहिये, नहीं तो कदापि सुख नहीं होगा, परन्तु अत्यन्त शोक का विषय है कि वर्तमान समय से इस उत्तम परिपाटीपर कुछ भी ध्यान न देकर केवल कुंभ मीन आदि का मिलान कर वर कन्या का विवाह कर देते हैं, जिस का फल यह होता है कि उत्तम गुणवती कन्या का विवाह दुर्गुणव वर के साथ अथवा उत्तम गुणवाले पुत्र का विवाह दुर्गुणवाली कन्या के साथ हो जाने से घरों में प्रतिदिन देवासुरसंग्राम मचा रहता है, इन सब हानियों के अतिरिक्त जब से भारत ने बालहत्या के मुख्य हेतु बालविवाह तथा वृद्धविवाह का प्रचार हुआ तब से एक और भी खोटी रीति का प्रचार हो गया है और वह यह है कि लड़की के लिये वर खोजने के लिये - नाई, दारी, धीवर, भाट और पुरोहित आदि भेजे जाते हैं, यह कैसे शोक की बात है कि - अपनी प्यारी पुत्री के जन्मभर के सुख दुःख का भार दूसरे परम लोभी, मूख, गुणहीन, स्वार्थी और
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