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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
मसालची, म्याने, पानकी और अष्टांग के जाननेवाले निमित्तिये सदा हाजिर रहते थे, छड़ी चँवर, गवैये और वराङ्गनायें जिन की सेवा में हर वख्त उपस्थित रहते थे और जिन की जूतियों में भी अमूल्य रत्न झलझलाया करते थे वे भी चले गये तो भला दूसरों की गिनती को कौन करे ? सोचो तो सही कि जब चक्रवत्तसरीखे इस संसार में न रहे तो औरों की क्या कथा है ? चक्रवर्ती के चमत्कार और ऐश्वर्य की तरफ देखो कि लाख योजन का लम्बा चौड़ा जम्बूद्वीप है, उस में दक्षिण दिशा की तरफ भारतवर्ष नामक एक सब से छोटा टुकड़ा है, इस के यदि बड़े विभागों को गिनें तो छः खण्ड होते हैं, चक्रवर्ती उन छःवों खण्डों का मालिक होता है, वासुदेव तीन खण्डका मालिक होता है, वासुदेव से छोटा माण्डलिक राजा होता है, उस से छोटा मुकुटबन्ध होता है और उस से भी छोटा छत्रपति होता है, इस प्रकार से नीचे उतरते २ यह भी मानना ही पड़ता है कि सामन्तराज, ठाकुर, जागीरदार और सर्दार आदि भी अपनी पृथ्वी के राजे ही हैं, इसी प्रकार दीवान और नायबदीवान यद्यपि राजा नहीं हैं किन्तु राजा के नौकर हैं तथापि सामान्य प्रजा के लिये तो वे भी राजा के ही तुल्य हैं, देखो ! गवर्नर जनरल और गवर्नर आदि हाकिम भी यद्यपि राजा नहीं हैं किन्तु राजा के भेजे हुए अधिकारी हैं तथापि बड़ों के भेजे हुए होने से वे भी राजा के ही तुल्य माने जाते हैं यह सव न्यूनाधिकता केवल पुण्य और पाप की न्यूनाधिकता से ही होती है, इस बात को सदा ध्यान में रखकर ब अधिकारियों को उचित है कि न्याय के ही मार्गपर चलें, अन्याय के मार्ग का स्वयं त्यागकर दूसरों से भी त्याग करावें, देखो ! पुण्य के प्रताप से एक समय वह था कि आर्य खण्ड के राजे मुजरा करते थे परन्तु पुण्य की हीनता से आज वह समय है कि अनार्य खंड के राजों को आर्यखंड के राजे मुजरा करते हैं, तात्पर्य यह है कि जब जिस का सितारा तेज होता है तब उसी का जोर शोर चारों ओर फैल जाता है, इसी लिये कहा जाता है कि यह जीवात्मा जैा २ पुण्य परभव में करता है वैसा २ ही उस को फल भी प्राप्त होता है, देखो ! मनुष्य यदि वाहे तो अपनी जीवित दशा में धन्यवाद और मुख्याति को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि धन्यवाद और सुख्याति के प्राप्त करने के सब साधन उस के पास विद्यमान हैं अर्थात् ज्यों ही गुणों की वृद्धि की त्यों ही मानो धन्यवाद और मुख्याति प्राप्त हुई, ये दोनों ऐसी वस्तुयें है कि इन के साधनभूत शरीर आदि का नाश होनेपर भी इन का कभी नाश नहीं होता है, जैसे कि तेल में फूल नहीं रहता है परन्तु उस की सुगन्धि बनी रहती हैं, देखो ! संसार में जन्म पाकर अलवत्तह सव ही मनुष्य प्रायः मान अपमान सुख दुःख और हर्ष शोक आदि को प्राप्त होते हैं परन्तु प्रशंसनीय वे ही मनुष्य हैं जो कि सम भाव से रहते हैं, क्योंकि सुख दुःख और हर्ष शेकादि वास्तव में शत्रुरूप हैं, उन के आधीन अपने को कर देना अत्यन्त मूर्खता है, बहुत से लोग जरा से सुख से इतने प्रसन्न होते हैं कि फूले नहीं समाते हैं तथा जरा से दुःख और कसे इतने घबड़ा जाते हैं कि जल में डूब मरना तथा विष खाकर मरना आदि निकृष्ट कार्य कर बैठते हैं, यह अति मूर्खों का काम है, भला कहो तो सही क्या इस तरह मरने से उन को स्वर्ग मिलता है ? कभी नहीं, किन्तु आत्मघातरूप पाप से बुरी गति होकर जन्म जन्म में कष्ट ही उठाना पड़ेगा, आत्मवात करनेवाले समझते हैं कि ऐसा करने से संसार में हमारी प्रतिष्ठा बनी रहेगी कि अमुक पुरुष अमुक अपराध के हो जाने से लज्जित होकर आत्मघात कर मर गया, परन्तु यह उन की महा मूर्खता है, यदि अच्छे लोगों की शिक्षा पाई है तो याद रक्खो कि इस तरह से जान को खोना केवल बुरा ही नहीं किन्तु महापाप भी है, देखो ! स्थानांगसूत्र के दूसरे स्थान में लिखा है कि-क्रोध, मान, माया और लोभ कर के जो आत्मघात करना है वह दुर्गति का हेतु है, अज्ञानी और अक्रती का मरना वालमरण में दाखिल है, ज्ञानी और सर्व विरति पुरुष का मरना पण्डित मरण है, देशविरति पुरुष का मरना वालपण्डित मरण है और आराधना करके अच्छे ध्यान में मरना अच्छी गति के पाने का सूचक है ॥
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