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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
उस स्वाभाविकी शक्ति की क्रिया को बन्द कर लाभ के बदले हानि करती है. इन ऊपर लिखी हुई बातों से यदि कोई पुरुष यह समझे कि-जब ऐसी व्यवस्था है तो दवा से क्या हो सकता है ? तो उस का यह पक्ष भी एकान्तनय है और जो कोई पुरुष यह समझे कि दवा से अवश्य ही रोग मिटता है तो उस का यह भी पक्ष एकान्त नय है, इस लिये स्याद्वाद का स्वीकार करना ही कल्याणकारी है, देखो! जीव की स्वाभाविक शक्ति रोग को मिटाती है यह निश्चयनय की बात है, किन्तु व्यवहारनय से दवा और पथ्य, ये दोनों मिलकर रोग को मिटाते हैं, व्यवहार के साधे विना निश्चय का ज्ञान नहीं हो सकता है इस लिये स्वाभाविक शक्तिरूप सातावेदनी कर्मको निर्बल करनेवाले कई एक कारण असाताकर्म के सहायक होते हैं अर्थात् ये कारण शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते हैं और जब शरीर रोग के असर के योग्य हो जाता है तब कई एक दूसरे भी कारण उत्पन्न होकर रोग को पैदा कर देते हैं।
रोग के मुख्यतया दो कारण होते हैं-एक तो दूरवर्ती कारण और दूसरे समी पवर्ती कारण, इन में से जो रोग के दूरवर्ती कारण हैं वे तो शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते हैं तथा दूसरे जो समीपवर्ती कारण हैं वे रोग को पैदा कर देते हैं, अब इन दोनो प्रकार के कारणों का संक्षेप से कुछ वर्णन करते हैं:
सर्वज्ञ भगवान् श्री ऋपभदेव पूर्व वैद्यने रोग के कारणों के अनेक भेद अपने पुत्र हारीत को बतलाये थे, जिन में से मुख्य तीन कारओं का कथन किया था, वे तीनों कारण ये हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक, इन में से आध्यात्मिक कारण उन्हें कहते हैं कि जो कारण स्वकृत पाप कर्म के योग से माता पिता के रज वीर्य के विकार से तथा अपने आहार विहार के अयोग्य वर्ताव से उत्पन्न होकर रोगों के कारण होते हैं, इस प्रकार के कारणों में ऊपर कहे हुए निश्चय और व्यवहार, इन दोनों नयों को सर्वत्र जान लेना चाहिये, शस्त्र का जखम और ज़हरीले जल से उत्पन्न हुआ जखम आदि अनेकविध रोगोत्पादक (रोगों को उत्पन्न करनेवाले) कारणों को तथा आगन्तुक कारणों को आधिभौतिक कारण कहते हैं, इन सब में निश्चयनय में तो पूर्व बद्ध कर्मोदय तथा व्यवहारनय में आगन्तुक कारण जानने चाहियें. हवा, जल, गर्मी, ठंढ और ऋतुपरिवर्तन आदि जो रोगों के स्वाभाविक कारण हैं उन्हें आधिदैविक कारण कहते हैं, इन कारण में भी पूर्वोक्त दोनों ही नय समझने चाहियें।
१-इन्हों ने हारीतलंहिता नामक एक बहुत बड़ा वैद्यक का ग्रन्य बनाया था, परन्तु व? वर्तमान में पूर्ण उपलब्ध नहीं होता है, इससमय जो हार्गतसंहिता नाम वैयक का ग्रन्थ छर हुआ उपलव्ध (प्राप्त) होता है वह इन का बनाया हुआ नहीं है किन्तु किसी दूसरे हारीत क बनाया हुआ है ॥ २-क्योंकि मा बाप के रज वीर्य का विकार, गर्भावस्था में मर्भिणी स्त्री क विरुद्ध वर्ताव और जन्म होने के पीछे माता आदि का अयोग्य आहार और विहार का करन कराना आदि कारण जीव के पूर्वकृत पाप के उदय से होकर दुःखरूप कार्य को पैदा करते हैं."
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