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चतुर्थ अध्याय ।
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लिये नियत की हुई पुस्तकों के पाठों में पहिले तो इस विद्या के सामान्य नियम बतलाये जावें जो कि सरल और उपयोगी हों तथा जिन के समझने में विद्यार्थियों को अधिक परिश्रम न पड़े, पीछे इस ( विद्या ) के सूक्ष्म विषयों को उन्हीं पुस्तकों के पाठों में प्रविष्ट करना चाहिये ।
वर्त्तमान में जो इस विद्या की कुछ बातें स्कूलों में पढ़ी पढ़ाई भी जाती हैं उन्हें मौण जानकर उन पर पूरे तौर से न तो कुछ ध्यान दिया जाता है और न ये बातें ही ऐसी हैं कि पाठकों के चित्तपर अपना कुछ प्रभाव डाल सकें इसलिये उन का पढ़ना पढ़ाना बिलकुल व्यर्थ जाता है, देखो ! स्कूल का एक विद्वान् विद्यार्थी भी ( जिस ने इस विद्या की यह शिक्षा पाई है तथा दूसरों को भी शिक्षा के देने का अधिकारी हो गया है कि साफ पानी पीना चाहिये, साफ वस्त्र पहरने चाहियें, तथा प्रकृति के अनुकूल खुराक खानी चाहिये ), घर में जाकर प्रतिदिन उपयोग में आनेवाली वस्तुओं के भी गुण और दोष को न जान कर उन का उपयोग करता है, भला कहिये यह कितनी अज्ञानता है,
स्कूल में शिक्षा के पाने का यही फल है ? स्कूल का पदार्थ विद्या का वेत्ता एक विद्यार्थी यदि यह नहीं जानता है कि मूली और दूध तथा मूंग की दाल और दूध मिश्रित कर खाने से शरीर में थोड़ा २ ज़हर प्रतिदिन इकठ्ठा होकर भविष्यत् में क्या २ बिगाड़ करता है तो उस के पदार्थविद्या के पढ़ने से क्या लाभ है ? भला सोचो तो सही कि ऊपर लिखी हुई एक छोटीसी बात को भी वह विद्यार्थी जब कि स्वप्न में भी नहीं जानता है तो आरोग्यता के विशेष नियमों को वह क्यों कर जान सकता है; वा कैसे उन के जानने का अधिकारी हो सकता है ? स्कूल के उच्च कक्षा के विद्यार्थी भी जो कि आकाश के ग्रहों और तारों की गति के तथा उन के परिवर्तन के नियमों को कण्ठाग्र पढ़ जाते हैं, ऋतुओं के परिवर्तन से शरीर में क्या २ परिवर्तन होता है उस के लिये किस २ आहार विहार की संभाल रखनी चाहिये इत्यादि बातों को बिलकुल नहीं जानते हैं, इसी प्रकार सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण के कारण को तथा उन के आकर्षण से समुद्रों में होनेवाले ज्वार भाटे ( उतार चढ़ाव ) के नियम को तो वे ( विद्यार्थी ) समझ सकेंगे, परन्तु इस ग्रहचक्र का शरीर पर कैसा असर होता है और उस के आकर्षण से शरीर में किस प्रकार की न्यूनाधिकता होती है इन बातों का ज्ञान उन विद्यार्थियों को कुछ भी नहीं होता है, सिर्फ यही कारण है कि वैद्यक शास्त्र के नियमों का ज्ञान उन्हें न होने से वे स्वयं उन नियमों का पालन नहीं करते हैं तथा दूसरों को नियमों का पालन करते हुए देखकर उन का उलटा उपहास करते हैं, जैसे देखो ! द्वितीया, पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णमासी और अमावस, इन तिथियों में उपवास और व्रत नियम का करना वैद्यक विद्या के आधार से बुद्धिमान् आचार्यांने धर्मरूप में प्रविष्ट किया है,
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