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________________ चतुर्थ अध्याय । ३१३ बिछौने पर सोने से माकड़ आदि अनेक जन्तु सताते हैं जिस से नींद में बाधा पहुँचती है और मलिनता के कारण अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं । ४ - चौमासे में ज़मीन पर नहीं सोना चाहिये, क्योंकि इस से शर्दी आदि के अनेक विकार होते हैं और जीवजन्तु के काटने आदि का भी भय रहता है । 1 ५ - चूने के गछ पर सोना वायु और कफ की प्रकृतिवाले को हानि करता है। ६- पलंग आदि पर सदा मुलायम बिछौने बिछा कर सोना चाहिये । ७- केवल उष्ण तासीर वाले को खुली जगह में ग्रीष्म ऋतु में ही सोना चाहिये, परन्तु जिन देशों में ओस गिरती है उन में तो खुली जगह में वा खुली चांदनी में नहीं सोना चाहिये, एवं जिस स्थान में सोने से शरीर पर हवा का अधिक झपाटा ( झकोरा ) सामने से लगता हो उस स्थान में नहीं सोना चाहिये । ८- सोने के कमरे के दर्बाज़े तथा खिड़कियों को बिलकुल बंद कर के कभी नहीं सोना चाहिये, किन्तु एक या दो खिड़कियां अवश्य खुली रखनी चाहियें जिस से ताज़ी हवा आती रहे । ९ - बहुत पढ़ने आदि के अभ्यास से, बहुत विचार से, नशा आदि के पीने से, अथवा अन्य किसी कारण से यदि मन उचका हुआ ( अस्थिर ) हो तो तुर्त नहीं सोना चाहिये । १० - सोने के पहिले शिर को ठंढा रखना चाहिये, यदि गर्म हो तो ठंढे जल से धो डालना चाहिये । ११ - पैरों को सोने के समय सदा गर्म रखना चाहिये, यदि पैर ठंढे हों तो तलवों को तेल से मलवा कर गर्म पानी में रख कर गर्म कर लेना चाहिये । १२ - देर से तथा बहुत देरतक नहीं सोना चाहिये, किन्तु जल्दी सोना चाहिये तथा जल्दी उठना चाहिये । १३ - बहुत पेटभर खाकर तुर्त नहीं सोना चाहिये । १४ - संसार की सब चिन्ता को छोड़ कर चार शरणा लेकर चारों आहारों का त्याग करना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि जीता रहा तो सूर्योदय के बाद खाना पीना बहुत है, चौरासी लाख जीवयोनि से अपने अपराध की माफी मांग कर सोना चाहिये । १५ - सात घंटे की नींद काफी होती है, इस से अधिक सोना दरिद्रों का काम है। १ - देखो ! शायरों ने कहा है जायगा, जो जेठ चलेगा बाट ॥ और पैरों को गर्म रखना चाहिये ॥ १ चुके हैं ॥ २७ जै० सं० कि - " सावण सूधे साथरे, माह उघाड़े खाट || विन मारे मर २ - हमेशह ही ( सोने के अतिरिक्त भी ) शिर को ठंढा ३- इस के हानि लाभ पूर्व इस प्रकरण की आदि में लिख ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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