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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
__ इस ऋतु में खिले हुए सुन्दर सुगन्धित पुप्पों की माला का धारण करना वा उन को सूंघना तथा सफेद चन्दन का लेप करना भी श्रेष्ठ है। __ चन्दन, केवड़ा, गुलाब, हिना, खस, मोतिया, जुही और पनड़ी आदि के पतरों से बनाये हुए साबुन भी ( लगाने से ) गर्मी के दिनों में दिल को खुश तथा तर रखते हैं इस लिये इन साबुनों को भी प्रायः तमाम शरीर में स्नान करते समय लगाना चाहिये। ___ इस ऋतु में स्त्रीगमन १५ दिन में एक वार करना उचित है, क्योंकि इस ऋतु में स्वभाव से ही शरीर में शक्ति कम होजाती है । - इस ऋतु में अपथ्य-सिरका, खारी तीखे खट्टे और रूक्ष पदार्थों का सेवन, कसरत, धूप में फिरना और अग्नि के पास बैठना आदि कार्य रस को सुखाकर गर्मी को बढ़ाते हैं इस लिये इस ऋतु में इन का सेवन नहीं करना चाहिये इसी प्रकार गर्म मसाला, चटनीयां, लाल मिर्च और तेल आदि पदार्थ सदा ही बहुत खाने से हानि करते हैं परन्तु इस ऋतु में तो ये ( सेवन करने से) अक यनीय हानि करते हैं इस लिये इस ऋतु में इन सब का अवश्य ही त्याग करना चा हेये ।
वर्षा और प्रावृट् ऋतु का पथ्यापथ्य । चार महीने बरसात के होते हैं, मारवाड़ तथा पूर्व के देशों में आर्द्रा नक्षत्र से तथा दक्षिण के देशों में मृगशिर नक्षत्र से वर्षा की हवा का प्रारम्भ होता है, पूर्व वीते हुए ग्रीप्म में वायु का संचय हो चुका है, रस के सूख जाने से शनि
१-परन्तु ये सब ऋतु के अनुकूल पदार्थ उन्हीं पुरुषों को प्राप्त हो सकते हैं जिन्हों ने पूर्वभव में देव गुरु और धर्म की सेवा की है, इस भव में जिन पुरुषों का मन धर्म में लगा हुआ है और जो उदार खभाव हैं तथा वास्तव में उन्हीं का जन्म प्रशंसा के योग्य है, क्योंकि-देखो' श ल और दुबाले आदि उत्तमोत्तम वम कडे और कण्ठी आदि भूषण, सब प्रकार के वाहन और मोतियों के हार आदि सर्व पदार्थ धर्म की ही बदौलत लोगों को मिले हैं और मिल सकते हैं, पर तु अफसोस है कि इस समय उस (धर्म) को मनुष्य बिलकुल भूले हुए हैं, इस समय में सी व्यवस्था हो रही है कि-धनवान् लोग धन के नशे में पड़ कर धर्म को बिलकुल ही दो बेटे हैं, वे लोग कहते हैं कि-हमें किसी की क्या परवाह है, हमारे पास धन है इसलिये हम चाहें सो कर सकते हैं इत्यादि, परन्तु यह उनकी महाभूल हैं, उन को अज्ञानता के कारण ‘ह नहीं मालूम होता है कि जिस से हम ने ये सब फल पाये हैं, उस को हमे नमते रहना चाहिये और आगे के लिये परलोकका मार्ग माफ करना चाहिये, देखो! जो धनवान् और धनवान होता है उस की दोनों लोकों में प्रशंसा होती है, जिन्हों ने पूर्वभव में धर्म किया है उन्ही को भोजन
और वस्त्र आदि की तंगी नहीं रहती है अर्थात् युण्यवानों को ही खान पान आदि सब बातों का मुख रहता है, देखो ! संसार में बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन को खानपान का भी मुखा नहीं है, कहिये संसार में इस से अधिक और क्या तकलीफ होगी अर्थात् उन के दुःख का क्या अन्त हो सकता है कि जिन के लिये रोटीतक का भी टिकाना नहीं है, आदी अन्य नव प्रकार के दुःख मुगत सकता है परन्तु रोटी का दुःख किसी ने नहीं महा जाता है, इसी लिये कहा जाता है कि हे भाइयो । धर्मपर मदा प्रेम रखो, वही तुम्हारा मचा मित्र है ।
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