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चतुर्थ अध्याय। गोंद का पानी-गोंद का पानी २॥ तोले तथा मिश्री ११ तोला, इन दोनों को एक पात्र में रखकर उस पर उबलता हुआ पानी डालकर ठंढा हो जाने पर पीने से श्लेप्मा अर्थात् कफ हांफनी और कण्ठ बेल का रोग मिट जाता है।
जों का पानी छरे हुए (कूटे हुए) जौं एक बड़े चमचे भर (करीब १ छटांक), बूरा दो तीन चिमची भर (करीब १॥ छटांक) तथा थोड़ी सी नींबू की छाल, इन सब को एक वर्तन में रख कर ऊपर से उबलता हुआ पानी डाल कर ठंढा हो जाने के बाद छान कर पीने से बुखार, छाती का दर्द और अमूझणी (घबराहट) दूर हो जाती हैं।
यह चतुर्थ अध्याय का पथ्यापथ्यवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ ।
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सातवां-प्रकरण। ऋतुचर्यावर्णन।
ऋतुचर्या अर्थात् ऋतु के अनुकूल आहार विहार । जैसे रोग के होने के बहुत से कारण व्यवहारनय से मनुष्यकृत हैं उसी प्रकार निश्चयनय से दैवकृत अर्थात् स्वभावजन्य कर्मकृत भी हैं, तत्सम्बन्धी पांच समवायों में से काल प्रधान समवाय है तथा इसी में ऋतुओं के परिवर्तन का भी समावेश होता है, देखो! बहुत गर्मी और बहुत ठंढ, ये दोनों कालधर्म के स्वाभाविक कृत्य हैं अर्थात् इन दोनों को मनुष्य किसी तरह नहीं रोक सकता है, यद्यपि अन्यान्य वस्तुओं के संयोग से अर्थात् रसायनिक प्रयोगों से कई एक स्वाभाविक विषयों के परिवर्तन में भी मनुष्य यत्किञ्चित् विजय को पा सकते हैं परन्तु वह परिवर्तन ठीक रीति से अपना कार्य न कर सकने के कारण व्यर्थ रूपसाही होता है, किन्तु जो (परिवर्तन) कालस्वभाव वश स्वाभाविक नियम से होता रहता है वही सब प्राणियों के हित का सम्पादन करने से यथार्थ और उत्तम है इस लिये मनुष्य का उद्यम इस विषय में व्यर्थ है। __ ऋतु के स्वाभाविक परिवर्तन से हवा में परिवर्तन होकर शरीर के भीतर की गर्मी शदी में भी परिवर्तन होता है इसलिये ऋतु के परिवर्तन में हवा के स्वच्छ रखने का तथा शरीर पर मलिन हवा का असर न होसके इस का उपाय करना मनुष्य का मुख्य काम है।
-यह पथ्यापथ्य का वर्णन संक्षेप से किया गया है, इस का विशेष वर्णन वैद्यकसम्बन्धी अन्य ग्रन्धों में देखना चाहिये, क्यों कि ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहां अनावश्यक विषय का वर्णन नहीं किया है ॥ २-जैसे विना ऋतु के वृष्टिका बरसा देना आदि ।
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