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चतुर्थ अध्याय ।
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रसवाला, सूक्ष्म, योनि तथा शुक्र का शोधक, आमगन्धवाला, रस और पाक में स्वादिष्ठ, कडुआ, चरपरा तथा दस्तावर है, विषमज्वर, हृदयरोग, गुल्म, पृष्टशूल; गुशूल, वादी, उदररोग, अफरा, अष्टीला, कमर का रह जाना, वातरक्त, मलसंग्रह, बद, सूजन, और विधि को दूर करता है, शरीररूपी वन में विचरनेवाले आमवात रूपी गजेन्द्र के लिये तो यह तेल सिंहरूप ही है ।
राल का तेल - विस्फोटक, घाव, कोढ़, खुजली, कृमि और वातकफज रोगों दूर करती है ।
को
क्षार वर्ग ।
स्वाद
खानों या ज़मीन में पैदा हुए खार को लोग सदा खाते हैं, दक्षिण प्रान्त देश तक के लोग जिस नमक को खाते हैं, वह समुद्र के खारी जल से जमाया जाता है, राजपूताने की सांभर झील में भी लाखों मन नमक पैदा होता है, उस झील की यह तासीर है कि जो वस्तु उस में पड़ जाती है वही नमक बन जाती हैं, उक्त झील में क्यारियां जमाई जाती हैं, पंचभदरे में भी नमक उत्पन्न होता है तथा वह दूसरे सब नमकों से श्रेष्ठ होता है, बीकानेर की रियासत लणकरणसर में भी नमक होता है, इसके अतिरिक्त अन्य भी कई स्थान मारवाड़ में हैं जिन में नमक की उत्पत्ति होती है परन्तु सिन्ध आदि देशों में जमीन में नमक की खानें हैं जिनमें से खोद कर नमक को निकालते हैं वह सेंधानमक कहलाता है, और गुण में यह नमक प्रायः सब ही नमकों से उत्तम होता है इसीलिये वैद्य लोग बीमारों को इसी का सेवन कराते हैं, तथा धातु आदि रसों के व्यवहार में भी प्रायः इसी का प्रयोग किया जाता है, इस के गुणों को समझनेवाले बुद्धिमान् लोग सदा खानपान के पदार्थों में इसी नमक को खाते हैं, इंग्लैंड से लीवर पुल सॉल्ट नामक जो नमक आता है उस को डाक्टर लोग बहुत अच्छा बतलाते हैं, खुराक की चीजों में नमक बड़ा ही जरूरी पदार्थ है, इस के डालने से भोजन का स्वाद तो बढ़ ही जाता है तथा भोजन पचभी जल्दी जाता है, किन्तु इस के अतिरिक्त यह भी निश्चय हो चुका है कि नमक के बिना खाये आदमी का जीवन बहुत समय तक नहीं रह सकता है, देखो ! जो लोग दूध से वर्षों तक निर्वाह कर लेते हैं उसका कारण यही है कि- दूध में यथावश्यक खार का भाग मौजूद है, खान पान में नमक स्वाद और रुचि को पैदा करता है तथा हाड़ों को मज़बूत करता है ।
नमक में यह अवगुण भी है कि नमक तथा खार का स्वभाव वस्तु के सड़ाने अथवा गलाने का है, इसलिये परिमाण से अधिक नमक का सेवन करने से वह
१ - यह संक्षेप से कुछ तैलो के गुणों का वर्णन किया गया है, शेष तैलों के गुण उन की योनि के समान जानने चाहियें अर्थात् जो तेल जिस पदार्थ से उत्पन्न होता है उस तैल में उसी पदार्थ के समान गुण करते हैं, इस का विस्तार से वर्णन दूसरे वैद्यकग्रन्थों में देखना चाहिये ।
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