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चतुर्थ अध्याय ।
तैलवर्ग |
तैल यद्यपि कई प्रकार का होता है परन्तु विशेषकर मारवाड़ में तिली का और बंगाल तथा गुजरात आदि में सरसों का तेल खाने आदि के काम में आता है, तेल खाने की अपेक्षा जलाने में तथा शरीर के मर्दन आदि में विशेष उपयोग में आता है, क्योंकि उत्तम खान पान के करनेवाले लोग तेल को बिलकुल नहीं खाते हैं और वास्तव में घृतजैसे उत्तम पदार्थ को छोड़कर बुद्धि को कम करनेवाले तेल को खाना भी उचित नहीं है, हां यह दूसरी बात है कि तेल सस्ता है तथा मौठ गुवारफली और चना आदि वातल ( वातकारक ) पदार्थ मिर्च मसाला डाल कर तेल में तलने से सुस्वाद (लज़तदार) हो जाते हैं तथा वादी भी नहीं करते हैं, इतने अंश में यदि तैल खाया जावे तो यह भिन्न बात है परन्तु घृतादि के समान इस का उपयोग करना उचित नहीं है जैसा कि गुजरात में लोग मिठाई तक तेल की बनी हुई खाते हैं और बंगालियों का तो तेल जीवन ही बन रहा है, हां अलवत्ता जोधपुर मेवाड़ नागौर और मेड़ता आदि कई एक राजस्थानों में लोग तेल को बहुत कम खाते हैं ।
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गृहस्थ के प्रतिदिन के आवश्यक पदार्थों में तेल भी एक पदार्थ है, तथा इस का उपयोग भी प्रायः प्रत्येक मनुष्य को करना पड़ता है इस लिये इस की जातियों तथा गुणदोषों का जान लेना प्रत्येक मनुष्य को अत्यावश्यक है अतः इसकी जातियों तथा गुणदोषों का संक्षेप से वर्णन करते हैं:
तिल का तैल- -यह तैल शरीर को दृढ़ करनेवाला, बलवर्धक, त्वचा के वर्ण को अच्छा करनेवाला, वातनाशक, पुष्टिकारक, अग्निदीपक, शरीर में शीघ्र ही प्रवेश करनेवाला और कृमि को दूर करनेवाला है, कान की, योनि की और शिर की शुल को मिटाता है, शरीर को हलका करता है, टूटे हुए, कुचले हुए, दबे हुए और कटे हुए हाड़ को तथा अग्नि से जले हुए को फायदेमन्द है ।
तेल के मर्दन में जो २ गुण कल्पसूत्र में लिखे हैं वे किसी ओषधि के साथ हुए तेल के समझने चाहियें किन्तु खाली तेल में उतने गुण नहीं हैं ।
पके
जिन औषधों के साथ तेल पकाया जावे उन औषधों का उपयोग इस प्रकार करना चाहिये कि गर्मी अर्थात् पित्त की प्रकृतिवाले के लिये ठंढी और खून को साफ करनेवाली औषधों का तथा कफ और वायु की प्रकृतिवाले के लिये उष्ण और कफ को काटनेवाली औषधों का उपयोग करना चाहिये, नारायण, लक्ष्मी
१ - जैसे कि मोठ के भुजिये ( सेवा ) बीकानेर में तेल में तलकर बहुत ही अच्छे बनते हैं और वहां के लोग उन्हें बड़ी शौक से खाते हैं, चने और मौठ के सेव प्रायः सब ही देशों में तेल में ही बनते हैं और उन्हें गरीब अमीर प्रायः सब ही खाते हैं ।
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