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जैनसम्प्रदायशिक्षा। भी थोड़ा बहुत अन्तर होता है, किन्तु सामान्य गुण तो (जो कि ऊपर लिखे हैं) प्रायः सब में समान ही हैं।
जामुन-ग्राही ( मल को रोकनेवाले), मीटे, कफनाशक, रुचिकर्ता, वायुनाशक और प्रमेह को मिटानेवाले हैं, उदर विकार में इन का रस अथवा सिरका लाभदायक है अर्थात् अजीर्ण और मन्दाग्नि को मिटाता है।
वेर-बेर यद्यपि अनेक जाति के होते हैं परन्तु मुख्यतया उन के दो ही भेद हैं अर्थात् मीठे और खट्टे, बेर कफकारी तथा बुखार और खांसी को उत्पन्न करते हैं, वैद्यक शास्त्रमें कहा है कि-"हरीतकी सदा पथ्यं, कुपथ्यं बदरीफलम्' अर्थात् हरड़ सदा पथ्य है और बेर सदा कुपथ्य है,।
मेरों में प्रायः जन्तु भी पड़ जाते हैं इसलिये इस प्रकार के तुच्छ फलों को जैनसूत्रकारने अभक्ष्य लिखा है, अतः इन का खाना उचित नहीं है। __ अनार-यह सर्वोत्तम फल है, इस की मुख्य दो जातियां हैं-मीठी और खट्टी, इन में से मीठी जाति का अनार त्रिदोषनाशक है तथा अतीसार के रंग में फायदेमन्द है, खट्टी जाति का अनार वादी तथा कफ को दूर करता है, काबुल का अनार सब से उत्तम होता है तथा कन्धार पेशावर जोधपूर और पूना आदि कभी अनार खाने में अच्छे होते हैं, इस के शर्वत का उष्णकाल में सेवन करने से बहुत लाभ होता है।
केला–स्वादु, कपैला, कुछ ठंढा, बलदायक, रुचिकर, वीर्यवर्धक, तृप्तिकारक, मांसवर्धक, पित्तनाशक तथा कफकर्ता है, परन्तु दुर्जर अर्थात् पचने में भारी होता है, प्यास, ग्लानि, पित्त, रक्तविकार, प्रमेह, भूख, रक्तपित्त और नेत्ररोग को मिटाता है, भस्मैकरोग में इस का फल बहुत ही फायदेमन्द है।
आँवला-ईपन्मधुर (कुछ मीठा ), खट्टा, चरपरा, कपैला, कड़आ, दम्नावर, नेत्रों को हितकारी, बलबुद्धिदायक, वीर्यशोधक, स्मृतिदाता, पुष्टिकारक तथा त्रिदोषनाशक है, सब फलों में आँवले का फल सर्वोत्तम तथा रसायन है- अर्थात् खट्टा होने के कारण वादी को दूर करता है, मीठा तथा ठंढा होने से पित्त गशक है, रूक्ष तथा कपैला होने से कफ को दूर करता है ।
ये जो गुण हैं वे गीले ( हरे ) आँवले के हैं, क्योंकि-सूखे आंवले में इतने गुण नहीं होते हैं, इसलिये जहांतक हरा आँवला मिल सके वहांतक बाजार में विकता हुआ सूखा आँवला नहीं लेना चाहिये।
दिल्ली तथा बनारस आदि नगरों में इस का मुरब्बा और अचार भी बनता है परन्तु मुरब्बा जैसा अच्छा बनारस में बनता है वैसा और जगह का नहीं होता है, वहां के आँवले बहुत बड़े होते हैं जो कि सेर भर में आठ तुलते हैं।
१-जिस में मनुष्य कितना ही खावे परन्तु उसकी भोजन से तृप्ति नहीं होती है स को भस्मक रोग कहते हैं।
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