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चतुर्थ अध्याय ।
२०७ और यही अभिप्राय सब वैद्यक ग्रन्थों का भी है, परन्तु वर्तमान समय में हमारे देश के जिह्वालोलुप लोगों में शाकादि का उपयोग बहुत ही देखा जाता है और उस में भी गुजराती, भाटिये, वैष्णव और शैव सम्प्रदायी आदि बहुत से लोगों में तो इस का वेपरिमाण उपयोग देखा जाता है, तथा वस्तु की उत्तमता और अधमता पर एवं उस के गुण और दोष पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है, इस ने बड़ी हानियां हो रही हैं, इसलिये बुद्धिमानों का यह कर्तव्य है कि इस हानिकारक वर्ताव से स्वयं बचने का उद्योग कर अपने देशके अन्य सब भ्राताओं को भी इस से अवश्य बचावें।
वनस्पति की खुराक के विषय में शास्त्रीय सिद्धान्त यह है कि-जिस वनस्पति में शक्तिदायक तथा उष्णताप्रद (गर्मी लानेवाला ) भाग थोड़ा हो और पानी का भाग विशेष हो इस प्रकार की ताजी वनस्पति थोड़ी ही खानी चाहिये। _पन, फूल, फल और कन्द आदि कई प्रकार के शाक होते हैं-इन में अनुक्रम से पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ का भारी होता है अर्थात् पत्तों का शाक सब से हलका है और कन्द का शाक सब से भारी है।
हमारे देश के बहुत से लोग वैद्यकविद्या और पाकशास्त्र के न जानने से शाका दि पदार्थों के गुण दोप तथा उन की गुरुता लघुता आदि को भी बिलकुल नहीं जानते हैं, इसलिये वे अपने शरीर के लिये उपयोगी और अनुपयोगी शाकादि को नहीं जानते हैं अतः कुछ शाकों के गुण आदि का वर्णन करते हैं:
चॅदलिया (चौलाई)-हलका, ठंढा, रूक्ष, मल मूत्र को उतारनेवाला, रुचिकर्ता, अग्निदीपक, विषनाशक और पित्त कफ तथा रक्त के विकारको मिटाने वाला है, इस का शाक प्रायः सब रोगों में पथ्य और सबों की प्रकृति के अनुकूल है, यह जैसे सब शाकों में पथ्य है उसी प्रकार स्त्रीके प्रदर में इस की जड़, गलकों के दस्त और अजीर्णता में इस के उवाले हुए पत्ते और जड़ पथ्य है, कोढ़, वातरक्त, रक्तविकार, रक्तपित्त और खाज दाद तथा फुनसी आदि चर्मरोगों में भी विना लाल मिर्चका इस का शाक खाने से बहुत लाभ होता है, यद्यपि यह ठंडा है तथापि वात पित्त और कफ इन तीनों दोपों को शान्त करता है, दस्त और पेशाव को साफ लाता है, पेशाव की गर्मी को शान्त करता है, खून को शुद्ध करता है पित्त के विकार को मिटाता है, यदि किसी विकृत दवा की गर्मी अथवा किसी विष का प्रभाव हो रहा हो तो इस के पत्तों को उवाल कर तथा उन का रस निकाल कर उस रस को शहद वा मिश्री डाल कर पीने से तथा इस का शाक खाने से दवा की गर्मी और विष का असर दस्त और पेशाव के
१-जेस शाक को जैनसूत्रों में जगह २ पर 'अनन्तकाय' के नाम से लिखा है वह शाक महागरि छ, रोगकर्ता और कष्ट से पचनेवाला समझना चाहिये।
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