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चतुर्थ अध्याय ।
१९७ छः रेस। पहिले कह चुके हैं कि-आहार में स्थित जो रस है उस के छः भेद हैंअर्थात् मीठा, खट्टा, खारा, तीखा, कडुआ और कषैला, इनकी उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है कि-पृथ्वी तथा पानी के गुण की अधिकता से मीठा रस उत्पन्न होता है, पृवी तथा अग्नि के गुण की अधिकता से खट्टा रस उत्पन्न होता है, पानी तथा अग्नि के गुण की अधिकता से खारा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा अग्नि के गुण की अधिकता से तीखा रस उत्पन्न होता है, वायु तथा आकश के गुण की अधिकता से कडुआ रस उत्पन्न होता है और पृथ्वी तथा वायु के गुण की अधिकता से कपैला रस उत्पन्न होता है।
छओं रसों के मिश्रित गुण । मीठा खट्ठा और खारा, ये तीनों रस वातनाशक हैं। मीठा कडुआ और कपैला, ये तीनों रस पित्तनाशक हैं। तीखा कडुआ और कपैला, ये तीनों रस कफनाशक हैं । कषैला रस वायु के समान गुण और लक्षणवाला है। तीखा रस पित्त के समान गुण और लक्षणवाला है। मीठा रस कफ के समान गुण और लक्षणवाला है।
छओं रसों के पृथक् २ गुण। मीठा रस-लोहू, मांस, मेद, अस्थि (हाड़) मजा, ओज, वीर्य तथा म्तनों के दूध को बढ़ाता है, आँख के लिये हितकारी है, बालों तथा वर्ण को स्वच्छ करता है, बलवर्धक है, टूटे हुए हाड़ों को जोड़ता है, बालक वृद्ध तथा जखम से क्षीण हुओं के लिये हितकारी है, तृपा मूर्छा तथा दाह को शान्त करता है सब इन्द्रियों को प्रसन्न करता है और कृमि तथा कफ को बढाता है।
इस के अति सेवन से यह-खांसी, श्वास, आलस्य, वमन, मुखमाधुर्य (मुख की मिठास), कण्ठविकार, कृमिरोग, कण्ठमाला, अर्बुद, श्लीपद, बस्तिरोग (मधुप्रमेह आदि मूत्र के रोग) तथा अभिष्यन्द आदि रोगों को उत्पन्न करता है।
खट्टा रस-आहार, वातादि दोष, शोथ तथा आम को पचाता है, वादी का नाश करता है, वायु मल तथा मूत्र को छुड़ाता है, पेटमें अग्निको करता है, लेप करने से ठंढक करता है तथा हृदयको हितकारी है।
१-दोहा-मधुर अम्ल अरु लवण पुनि, कटुक कषैला जोय । और तिक्त जग कहत है, पट रस जानो सोय ॥१॥
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