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________________ १८९ चतुर्थ अध्याय । ५-वनस्पति के आहार से शरीर को जितनी हानि पहुँचने का सम्भव है उस की अपेक्षा मांसाहार से विशेष हानि पहुँचने का सम्भव है, क्योंकि-वनस्पति की अपेक्षा मांस जल्दी बिगड़ जाता है, इस के सिवाय यह बात भी है कि वनस्पति की अच्छाई और खराबी की परीक्षा खाँखों से देखने से ही शीत्र हो जाती है परन्तु मांस रोगी जानवर का है अथवा नीरोग का है इस की परीक्षा जाँच करने से भी नहीं होसकती है, फिर देखो! वनस्पति के अजोण से जितनी हानि होती है उस की अपेक्षा मांस के अजीर्ण से बहुत बड़ा हानि और खराबी होती है, इस के सिवाय सृष्टि के इस अनादि नियम को भी ध्यान में रखना चाहिये कि जिस में थोड़ा भय हो वही वस्तु विशेष पसन्द के योग्य होती है। ६-निन्य मांसका आहार करनेवाले मांसाहारी लोगों को भी बहुत से रोगों में मां की खुराक का त्याग करने और वनस्पति की खुराक का भाश्रय लेने की आवश्यकता होती है, क्योंकि वनस्पति की खुराक विशेप पथ्य अर्थात मानव प्रकृति के अनुकूल है, इसीलिये बहुत से डाक्टर लोग भी वनस्पति के आहार की ही प्रशंसा करते और उसी का खाना पसन्द करते हैं। ७ -जो लोग वनस्पति की अपेक्षा मांस में अधिक शक्ति का होना बतलाते हैं यह उन की बड़ी भारी भूल है और इस में प्रमाण तथा दृष्टान्त यही है कि- देखो ! मांसाहारी सिंह, चीता, शृगाल, कौआ और चील आदि जानवर मह आलसी, बेकाम, क्रूरप्रकृति, प्रजाघाती और महाशठ आदि होते हैं, इसके विरुद्ध वनस्पति के खानेवाले-पृथिवी के जीतने में समर्थ और महाशूर वीर घोडे, प्रजा के जीवन के मुख्य आधार बैल, महाशक्तिमान् हाथी (कि जिस जाति की स्त्री जाति होकर भी सिखलाई हुई हथिनी नाहर को लोहे के लद्द से मा. डालती है ) और शीघ्रगतिवाले हरिण आदि कैसे २ जन्तु हैं, इसी से विरार लेना चाहिये कि वनस्पति में घास जैसी हलकीसे हलकी खुराक खानेवाले कैसे २ उद्यमी, साहसी, बलधारी और सरल बुद्धिवाले जीव होते हैं, इसन बुद्धिमान् समझ लेंगे कि मांस में कितनी ताकत है। ८-मनुष्य के रुधिर में एक हजार भागों में केवल तीन भाग फीबिन नामक तत्त्व के होने की आवश्यकता है, उस तत्त्व का ठीक परिमाण वनस्पति की खुराक से बराबर बना रहता है परन्तु मांस मे फीबिन का तत्व विशेप है इस लिये मांसाहारियों के रुधिर में फीब्रिन का परिमाण ऊपर लिखी माया से अधिक बढ़ कर अनेक समयों में कई रोगों का कारण हो जाता है। १-देखो ! वैद्यकग्रन्थों में ही लिखा है कि-"मांसादष्टगुणं घृतम्' अर्थात् मांस की अपेक्षा धृत भाटगुना बलदायक है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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