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________________ चतुर्थ अध्याय । वर्ग १८७ खुराक का 1 सूत्रों में लिखा है कि सृष्टि के प्रवाह के चलते समय प्रजापति ऋषभ जगदीश्वर ने शरीर के लिये हितकारी वनस्पति की खुराक चलाई, इस लिये सबसे प्रथम वनस्पति की खुराक हुई, इस के पश्चात् समय पर ( आवश्यकता के समय ) अन्नादि की खुराक न मिलने से मनुष्यों ने दूसरी खुराक मांस की शुरू की, अब साढ़े अठारह हजार वर्ष बीतने के बाद भारतवर्ष की समस्त प्रजा केवल मांसाहार से ही निर्वाह करेगी, असि मसी और कृषि, इन तीनों कर्मों का प्रय हो जायगा और उस समय वनस्पति नहीं मिलेगी, ऐसा अनन्तों वार हो चुका और होता रहेगा, परन्तु मनुष्य को सद्विचार और बुद्धि प्राप्त हुई है इसलिये उसको चाहिये कि हितकारी खुराक को खाये और अहितकारी खुराक का ग करे, क्योंकि "बुद्धेः फलं तच्चविचारणं च" अर्थात् बुद्धि के पाने का फल ही है कि का विचार करे अर्थात् सदा सुखदायक सद्व्यवहार करे । विचार कर देखने से ज्ञात होता है कि ऊपर कही हुई दोनों खुराकों में से लोगों में मांसकी खुराक का अधिक प्रचार है अर्थात् मांसाहारियों का समूह अधिक है, परन्तु यदि इन दोनों प्रकारों के समूहों का सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर मांसाहारी जंगली लोगोंको निकाल दिया जाये तो शेप सुधरी हुई प्रजा केस में पति की खुराक से निर्वाह करनेवाले लोगों की संख्या अधिक मालूम पड़नी है, क्योंकि जो वेजेटेरियन हैं ( मांस न खानेवाले हैं ) वे तो सिर्फ नस्पति से ही जीते हैं और जो मांसाहारी हैं उनकी खुराक में भी अधिक भाग नस्पति का ही है, इस से यह बात सिद्ध है कि वनस्पति के आहार से मनुष्यों का निर्वाह तो उक्त देखने से तथा मनुष्य शरीर कि मनुष्य के खाने क्योंकि जो उपयोगी बहुत रोग जी रहे हैं, यद्यपि ऊपर लिखे अनुसार दोनों खुराकों से हो सकता है तथापि विचारकर की रचना की ओर ध्यान देने से यह बात विदित होती है योग्य पौष्टिक तथा हितकारी खुराक हो वनस्पति की ही है, तत्व वनस्पति में रहे हुए हैं उन में से बहुत ही थोड़े तत्व मांस में हैं, यद्यपि मांसाहारी पशु अनेक प्रकार के मांस के खाने से ही जीवित रहते हैं तथापि यह नहीं समझ लेना चाहिये कि -उन २ ( उन अनेक प्रकार के ) मासों में भी उन्हीं के उपयोगी तत्त्व स्थित हैं, किन्तु उन २ मांसों में भी मुख्यतया वनस्पति के ही उपयोगी तत्त्व स्थित हैं, इसीलिये मांसाहार से भी उन का निर्वाह होता है, क्योंकि - वनस्पति के ही तत्व जीवन के लिये उपयोगी हैं, देखो ! मुख्यतया वनस्पति के खानेवाले बकरी, भेड, गाय, सुअर, हरिण और भैंसे आदि जो पशु हैं वे देवल मांस खाने वाले सिंह चीता और शृगाल आदि का मांस खाकर कभी जीवित नहीं रह सकते हैं, इस से सिद्ध है कि - सर्व प्रजा के लिये केवल वनस्पति ही आहार की आवश्यकता है, इस के सिवाय नीचे लिखे हेतुओं से भी मनुष्यों को वनस्पति का ही आहार उपयोग में लाना चाहिये: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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