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तृतीय अध्याय ।
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(कांच, शीसा ) देखना, इन सब बातों का भी स्त्री ऋतुधे प्रथम इस कार्य को तथा प्रसूता स्त्री का स्पर्श, विटला हुआ, ढेढ (चांडाल ), नो) सन्तति उत्पन्न कौआ और मुद्रा आदि का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये, इस भी मरी तो) दुर्बकरने से बहुत हानि होती है, इसलिये समझदार स्त्री को चाहियेाहिये। सम्य ऊपर लिखी हुई बातों का अवश्य स्मरण रक्खे और उन
7 ( खेत) है ववि करे।
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रजोदर्शन के समय उचित वर्ताव न करने से गर्भाशय में दई तथा उत्पन्न हो जाता है जिस से गर्भ रहने का सम्भव नहीं रहता है, कदाचित् हार रह भी जाता है तो प्रसूतिसमय में (बच्चा उत्पन्न होने के समय ) अति भ! रहा है, इस के सिवाय प्रायः यह भी देखा जाता है कि बहुत सी स्त्रियां पीले शरीर वाली तथा मुर्दार सी दीख पड़ती हैं, उस का मुख्य कारण ऋतुधर्म में दोप होना ही है, ऐसी स्त्रिया यदि कुछ भी परिश्रम का काम करती है तथा सीढ़ी पर चढ़ती हैं तो शीघ्रही हांफने लगती हैं तथा कभी २ उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा जाताहै-इसका हेतु यही है कि-ऋतुधर्मके समय उचित वीव न करने से उन के आन्तरिक निर्बलता उत्पन्न हो जाती है, इस लिये ऋतुधर्मके समय बहुत ही सँभलकर वर्ताव करना चाहिये।
ऋतुधर्म के समय बहुत से समझदार हिन्दू , पारसी, मुसलमान तथा अंग्रेज आदि वर्गों में स्त्रियों को अलग रखने की रीति जो प्रचलित है-वह बहुतही उत्तम है क्योंकि उक्त दशा में स्त्रियों को अलग न रखने से गृहसम्बंधी कामकाज में सम्बंध होने से बहुत खराबी होती है, वर्तमानमें उक्त व्यवहारके टीक रीति से न होने क कारण केवल मनुष्य जाति की लुब्धता तथा मनकी निर्बलता ही है, किन्तु उ चेत तो यही है कि-रजस्वला स्त्रियोंको अतिस्वच्छ, प्रकाशयुक्त, सूखे तथा निमल स्थान में गृह से पृथक रखने का प्रबंध करना चाहिये किन्तु दुर्गन्धयुक्त तथा प्रकाशरहित स्थान में नहीं रखना चाहिये।
ऋतुधर्म के समय स्त्रियों को चाहिये कि-मलीन कपड़े न पहरें, हाथ पैर सूखे और गर्म रक्खें, हवा में तथा भीगी हुई ज़मीन पर न चलें, खुराक अच्छी और ताली खावें, मन को निर्मल रक्खें, ऋतुधर्म के तीन दिनों में पुरुप का मुख भी न देर, स्नान करने की बहुत ही आवश्यकता पड़ें तो स्नान करें परन्तु जलमें बैठकर स्नान न करें किन्तु एक जुदे पात्रमें गर्म जल भर के स्नान करें और ठंडी पवन न लगने पाये इसलिये शीघ्र ही कोई स्वच्छ वस्त्र अथवा ऊनी वस्त्र पहरले परन्तु विप आवश्यकता के विना स्नान न करें।
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