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[ २ ] संयोगोंमें दुःखके पर्वतके नीचे दबी हुई आत्माको जब दुःखसे द्वेष करने का मौका ही नहीं मिलता, तब दुःख-वेदनासे कर्मबंध मिटता है। मनुष्य वगैरह उच्च कोटिके जीवोंने कर्म-छेदनकी प्रवृत्तिसे ही उन्नत दशा प्राप्तकी है। अन्य तमाम जीवोंसे मनुष्यने कुछ विशेष प्रगति की है और इसी कारण हम सुख दुःख, सार असार, धर्म अधर्म वगैरहका विचार कर सकते हैं।
मनुष्यकी विशेषताका प्रयोग हमको प्राप्त हुई यह विवेक बुद्धि मनुष्यकी विशेषता है और उसी विशेषताका प्रयोग विशेष उन्नत दशा प्राप्त करने के लिये भूतकालमें महात्माओंने किया है। अभी भी वैसा ही हो रहा है ।
मुक्त आत्मा __ जो महात्मा इस कर्म-बन्धनको स्पष्ट देख सके, उन्होंने उपाय सोच कर अपनेको बंध तोड़ने में लगाया और संसार पर विजयी होकर आत्महित सिद्ध कर सके। कर्मबंधसे मुक्त होकर वे सच्चा सुख प्राप्त कर सके और अभी भी उपभोग कर रहे हैं। ऐसे आत्माको हम मुक्त आत्मा कहते हैं।
धर्म मार्ग और मुक्तिकी प्राप्तिके लिये उन्होंने अनुभव सिद्ध जो मार्ग बताया है उसको धर्म-मार्ग कहते हैं। जो लोग सुखका मार्ग नहीं पाते लेकिन उसका अस्तित्व स्वीकार कर सुखकी प्राप्तिके लिये प्रवृत्त होते हैं उनको हम धर्म-मार्ग प्रवृत कहते हैं ।
प्रत्येक जीवका अन्तिम आशय अन्तिम आशय तो सुख प्राप्तिका ही है और इसमें कोई अन्तराय करे तो मनुष्य अपनी सर्व शक्ति लगाकर आमरणांत युद्ध खेलता है । अन्तमें दोनों में रोष और द्वेषकी भावना प्रगट होती है और कर्मबंध होते हैं । यह दुःखकी शुरुआत है ।
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