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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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25 18 भाषाओं के ज्ञाता तथा जैन धर्म के परम प्रभावक
संत आचार्यश्री महावीरकीर्ति महाराज
आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महाराज के आचार्य पदारोहण दिवस के अवसर पर विनयांजलि कार्यक्रम के अवसर पर आचार्य गुरुदेव श्री सुनीलसागरजी महाराज ने कहा कि वे अप्रतिम तपस्वी, 18 भाषाओं के ज्ञाता तथा जैन धर्म के अद्भुत प्रभावक संत थे। वे परमपूज्य आचार्य श्री आदिसागर अंकलीकरजी के मेधावी एवं परम प्रभावक शिष्य थे। वे चमत्करी शक्तियों के धारक थे, पशु पक्षियों की बोली की समझ थी उनमें शास्त्र पढ़ने की विचित्र कला एवं अदभुत प्रतिभा थी उनमें, आगम के कई प्रमख ग्रंथ उन्हें कंठस्थ थे पन्ने पलटते पलटते वे सहज में सीख लेते थे, अभ्यासुवृत्ति के धारक थे, ज्योतिष, मंत्र और औषधशास्त्र के ज्ञाता थे, एक आसन से घंटो कायोत्सर्ग में ध्यानस्थ रहना उनकी कठिन साधना का परिचायक बन चुका था, वे उपसर्ग विजेता एवं तीर्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित थे।
एक बार सम्मेदशिखरजी पर भील द्वारा रातभर उन ध्यानस्थ मुनिराज पर भाले की नोंक उनके शरीर पर चुभाते हुए सतत उपसर्ग किया गया, गुजरात के मेहसाना शहर में उपसर्ग के परिणाम स्वरूप समाधि भी हुई लेकिन उन्होंने समता भाव को नहीं छोड़ा। नेपाल की महारानी आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी की परम भक्त बनीं, उन्होंने 3 मकारों मधु मांस मद्य का आजीवन त्याग किया और एक साधारण श्रावक की तरह उनके संघ में समर्पित रहीं। कर्नाटक से पधारे एक श्रावक श्रेष्ठी ने महावीरकीर्तिजी महाराज का पावन प्रसंग सुनाते हुए कहा कि वे उनके गांव के पास जंगल में एक गुफा में एक ही आसन पर कायोत्सर्ग में 24 घंटों से अधिक समय तक लीन रहते थे।
__ परम उपकारी आचार्य भगवन् कहते हैं कि सच! गुरु की महिमा अपरंपार है। गुरु-शिष्य का रिश्ता सबसे अलग है जिसमे ना हक है, ना शक, ना अपनापन है, ना परायापन, ना जॉत है, ना पाँत, ना दूर, ना पास सिर्फ अपनेपन का अहसास, दूर होकर भी पास होने का अहसास। गुरु का उपकार अनंत है। वे अपने शिष्य को थोड़े से समय में अल्प परिश्रम में वह सब कुछ दे देना चाहते हैं, सिखा देना चाहते हैं जो उनके पास है जो उन्होंने सघन साधना, कठिन अध्ययन और अनुभव की पाठशाला में सीखा है, ताकि उनका शिष्य ठोकरें ना खाए। गुरु की तरह लौकिक जीवन में माँ