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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
सेर खाजा के माध्यम से लोगों को सम्बोधित किया और प्रेरणा दी कि गुरु की सीख न मानने से फांसी के फंदे पर भी लटकना पड़ जाता है। और वे सद्गुरु ही हैं जो वात्सल्य व प्रेम के वशीभूत होकर बात न माने जाने पर भी अपने शिष्य को युक्तिपूर्वक फांसी के फंदे से भी सकुशल वापस लौटा लाते हैं। लालचवृति एवं इन्द्रिय संयम अनिवार्य है यदि सांसारिक प्रपंचो से बचना है। जैन धर्म सभी को यह पावन मार्ग बताता है।
3 सकारात्मक सोच जीवन की दशा और दिशा
बदल सकती है।
भगवान महावीर कहते हैं कि हमेशा सकारात्मक सोच के साथ जीवन यापन करो, कभी किसी से ईर्ष्या मत करो। जो आगे बढ़ चुके हैं उनके पदचिन्हों को देखकर, प्रेरणा लेकर आगे बढ़ो तथा अपनों से छोटों की प्रगति से हर्षित होकर स्वंय को संयत, संयमित करते हुए प्रगतिशील बनो। सकारात्मक सोच के प्रभावों की गूढ़ किन्तु सहज व्याख्या करते हुए परमपूज्य परमयोगी 108 आचार्य श्री सुनील सागरजी महाराज ने कहा कि सकारत्मक सोच वाला व्यक्ति हर जगह यहाँ तक कि बुराई में भी अच्छाई ढूंढ ही लेता है जबकि नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति छिद्रानुवेशी की भांति किसी न किसी तरह अच्छाई में भी कमियां ढूँढने में अपनामूल्यवान समय, शक्ति व चेतना को बर्बाद करता रहता है।
हमें समझना होगा कि यदि कहीं कोई कमी भी है तो हमें कमियों को गिनने-गिनाने की बजाय सकारात्मक व रचनात्मक सोच रखते हुए उनको दूर करने का पुरुषार्थ करके योगदान करना चाहिए। बतौर उदाहरण, कुछ लोग इतने नकारात्मक और कृतघ्न होते हैं कि दूसरों के यहाँ मुफ्त में खा-पीकर भी तरह तरह की कमियां निकालने से बाज नहीं आते। जबकि हमें तो उस खिलाने वाले की भावना को समझना चाहिए था उसका यथायोग्य आदर करना चाहिए था। इसी नकारात्मक सोच के चलते लोग दूसरों की प्रगति से कुछ सीख लेने की बजाय, उसे देखकर स्वयं आगे बढ़ने की बजाय उससे न सिर्फ ईर्ष्या करके अपने परिणामों को कलुषित करते रहते हैं अपितु उसे गिराने की नीचवृत्ति अपनाने से भी नहीं कतराते।
गलतियां निकालने से सामने वाले का कुछ बिगड़े या न बिगड़े किन्तु नकारात्मक सोच को अंजाम देने वाले के भाव और भव अवश्य बिगड़ जाते हैं। सकारात्मक सोच हमें हिंसादि पांच पाप, क्रोध, मान, माया, लोभ