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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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के सामने तो अतिथि सत्कार, अतिथि इच्छा पूर्ण करने की संस्कृति का प्रश्न रहा होगा तभी उन्हें लक्ष्मण रेखा की मर्यादा के बाहर पैर रखना पड़ा होगा लेकिन एक बार मर्यादा टूटने का परिणाम कितना भंयकर हुआ। आज तो हम तथा कथित मस्ती मजाक में जिस तरह व्रत शील की मर्यादा को बिना कुछ विचार किए दांव पर लगा देते हैं, आधुनिकता के नाम पर सरेआम धज्जियां उड़ाते हैं, ऐसे में आध्यात्मिक रूप से पतन के गहरे गर्त में गिरते ही हैं साथ ही इस सांसारिक जीवन में लज्जा व शर्म के पात्र बन जाते है, कई दफा तो स्थिति इतनी विकराल बन जाती है कि हताशा, आत्महत्या तथा अन्य घिनोने अपराध पलभर में पनप जाते हैं।
परम उपकारी पूर्वाचार्य श्रीअमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि मर्यदा की रक्षा के लिए जीवन में सत्याणवत, अहिंसाणुव्रत, अचौर्याणव्रत, ब्रह्मचर्याणवत तथा अपरिग्रहाणुव्रत का पालन अनिवार्य है और इनमें वृद्धि करने के लिए 3 गुणव्रत अर्थात् दिशाओं की मर्यादा, क्षेत्र की मर्यादा होना भी जीवन में जरूरी है। जिस प्रकार नगर की रक्षा के लिए कोट (मोटी दीवाल) बनाई जाती है, गहरी खाई खोदी जाती है ठीक उसी प्रकार व्रत, शील व संयम की मर्यादाएं जीवन की आत्म स्वरूप की रक्षा करती हैं। यदि हम इन मर्यादाओं का पालन करते हैं तो इसके बाहर के क्षेत्र का हमें पाप नहीं लगता।
___ आचार्य भगवन् सावधान करते हैं कि यदि अहिंसाणुव्रत का पालन करना है तो अहिंसक लोगों के साथ रहो। ब्रह्मचर्य एक महान गुण है यह लाइन ऑफ कन्ट्रोल की तरह है लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि यह नियंत्रण रेखा बड़ी तेजी से हमारे बीच से गायब होती जा रही है। बंधुओ! यदि ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करनी है तो महिलाओं के स्थान पर रमने से, बैठने से बचो, विकथाओं से बचो, गरिष्ठ व विकार बढ़ाने वाले आहार से बचो, पूर्व के रतिस्मरण से बचो, शरीर के अंगार का लोभ त्यागो क्योंकि इनसे मन की चंचलता उत्पन्न होती है। इन मर्यादाओं के टूटने पर आध्यात्मिक पतन तो निश्चित तौर पर होता ही है किन्तु सामाजिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न होने से भी नहीं बचाया जा सकता। पारिवारिक रिश्तों में खटास, छल-कपट आदि कषाय भी पनपते देर नहीं लगती।
__ आचार्य भगवन् उदाहरण देकर समझाते हैं कि सुमेरु जैसा विशाल पर्वत भी अपनी मर्यादा रखता है, आकाश की विशालता के बाबजूद उसकी अपनी मर्यादा है, सागर अथाह गहराई के बाद भी अपनी मर्यादा नहीं लांघता। आज यदि सुनामी आदि आते भी हैं तो वह मनुष्य के द्वारा मर्यादा लांघने का दुष्परिणाम है। हमें भी माता-पिता व गुरुजनों की आज्ञा मानते हुए जीवन को मर्यादा में बाँधकर मनुजता के गुणों से स्वयं को सुशोभित करना चाहिए और स्वयं को अमर्यादित जीवन के खतरों से बचाते हुए अपनी