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अणुव्रत सदाचार और शाकाहार
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कुछ भी मेरे साथ जाना नहीं। अपने ज्ञायक ब्रह्म स्वरूप आत्मा में लीन होना ही जीवन का परम लक्ष्य है। प्रभु महावीर ने यही तो किया है। 12 साल की कठोर तपस्या के बाद । हम सभी इसी ब्रह्म स्वरूप की आराधना करना सीखें ताकि समाज में शांति का माहौल बने और हम अशांति का करण न बनें।
44 भगवान महावीर के पूवर्भवों से लें सम्यक जीवनचर्या का बोधपाठ
यदि मार्गदर्शक सही हो, तोदीपक भी काम कर जाता है। यदि अवसर की पहचान सही हो, तो वह महावीर बन जाता है।।
भगवान महावीर स्वामीजी के जीवन चरित्र पर प्रवचन करते हुए आचार्य भगवन् श्री सुनील सागरजी महाराज ने श्रावकगणों को बोधपाठ देते हुए कहा कि भगवान महावीर का जीव पुररुवा भील था, उसने अवसर की सही पहचान नहीं की इसलिए वह भव भव में भ्रमण करता रहा। लेकिन उसके जेहन में अहिंसा की ज्योति थी इसलिए वह स्वर्ग भी गया।
कहते हैं कि बिना तपस्या के, बिना मुनिधर्म का पालन किए मोक्ष नहीं मिलता, यह उक्ति भगवान महावीर की जन्म जन्मान्तर की यात्रा में चरितार्थ हुई। उनका जीव कितनी ही बार स्वर्ग गया और वहाँ के भोगों में आसक्त रहा इसलिए त्रस-स्थावर की योनियों में चक्कर खाता रहा। शुभ कर्म एवं सकारात्मक संयोगो के चलते मनुष्य भव भी मिला लेकिन सही अवसर की पहचान के बिना, तपस्या के बिना, सम्यक्त्व का पालन न करने से, अभिमान आदि के कारण पतन के गर्त में गिरता रहा। उनके भवभ्रमण की एक प्रेरक कथा जिसमें से बोध पाठ लेकर हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं।
भगवान महावीर का जीव विश्वनंदी के रूप में मगध देश के राजगृही में जन्म लेता है। यह कथानक सुविज्ञ श्रावकगणों के लिए कई बोधस्वरूप फुटप्रिंट छोड़ जाता है। विश्वनंदी के पिता अपने भाई को राजपाट देकर तथा उसे युवराज बनाकर दीक्षा ले लेते हैं। विश्वनंदी के चाचा अत्यन्त धार्मिक हैं, विश्वनंदी अत्यन्त बलशाली, आज्ञाकारी व सुपात्र है। एक प्रसंग बनता है कि चाचा का पुत्र (कुपुत्र) विशाखनंदी अपने पिता राजा से भोगविलास के लिए उस बगीचे को लेने की जिद करता है जिसे उनके भतीजे युवराज विश्वनंदी ने बड़े जतन से अपने लिए विकसित किया था। राजा उसे तरह तरह से नीति से समझाते हैं कि उसकी मांग सही नहीं है। किन्तु अंततः पुत्र हठ के आगे अपने भाई के बेटे के साथ मायाचारी करने को विवश हो जाते हैं। वे विश्वनंदी को