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प्रवचनसार
The knowledge of the Omniscient Lord is direct and simultaneous, always beyond the senses. The space-points of his pristine soul are not only inclusive of the power of the senses but, more than that, reflect simultaneously all objects. Certainly, the Omniscient Lord, by own making, is the embodiment of perfectknowledge (kevalajñāna).
Explanatory Note: The function of knowledge is to know and there is no limit to knowledge. The Omniscient Lord has infinite knowledge and he knows directly, without gradation, every objectof-knowledge (jneya) in the three worlds and the three times. This all-encompassing and indestructible knowledge is beyond sensory knowledge of the world.
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिढ़ । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं 1-23॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् । ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥1-23॥
सामान्यार्थ - [आत्मा ] जीवद्रव्य [ ज्ञानप्रमाणं] ज्ञान के बराबर है क्योंकि द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों के समान होता है, इसी न्याय से जीव भी अपने ज्ञानगुण के बराबर हुआ। आत्मा ज्ञान से न तो अधिक न ही कम परिणमन करता है, जैसे सोना अपनी कड़े, कुंडल आदि पर्यायों से तथा पीले वर्ण आदिक गुणों से कम या अधिक नहीं परिणमता, उसी प्रकार आत्मा भी समझना। [ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणं] और ज्ञान ज्ञेय के (पदार्थों के) प्रमाण है ऐसा [ उद्दिष्टम् ] जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जैसे - ईंधन में स्थित आग ईंधन के बराबर है उसी तरह सब पदार्थों को जानता हुआ ज्ञान ज्ञेय के प्रमाण है। [ज्ञेयं लोकालोकं] जो ज्ञेय है वह लोक तथा अलोक है, जो
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